कृषि आय बढ़ाने वाली कम लागत की तकनीकें

कृषि क्षेत्र में भी ऐसी सम्भावनाओं की कमी नहीं है जिनसे सम्मानजनक आय की प्राप्ति की जा सकती है। केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से भी ऐसी योजनाओं और कार्यक्रमों का आयोजन समय-समय पर किया जाता है जिनका उद्देश्य कृषक समुदाय को आधुनिक कृषि तकनीकें अपनाने के लिये प्रेरित करना है। सीमान्त, छोटे और मझोले किसानों के लिये कृषि को लाभदायी बनाने, कम लागत की खेतीबाड़ी की तकनीकों, समेकित कृषि प्रणाली, खेती के साथ पशुपालन, शूकर पालन, मात्स्यिकी, मधुमक्खी पालन, रेशम उत्पादन, खाद्य प्रसंस्करण, जैविक खेती, वैज्ञानिक खेती के विभिन्न आयामों आदि पर आधारित तमाम कृषि प्रणालियों और प्रौद्योगिकियों एवं तकनीकों का विकास किया गया है। इस वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज भी हमारे देश में बहुसंख्यक किसान सीमान्त या लघु कृषकों की श्रेणी में आते हैं। मोटे तौर पर ऐसे कृषकों से आशय है एक हेक्टेयर से कम भूमि जोत वाले कृषक। इनमें से अधिकांश किसानों की पैदावार अपने परिवार के लिये गुजर-बसर करने लायक खाद्यान्न के उत्पादन तक ही सिमटी हुई है। सरप्लस उपज तो बहुत दूर की बात है- बाढ़, सूखा या अन्य विपदाओं के कारण किसानों के लिये कभी-कभी तो खेती की लागत भी निकालनी मुश्किल पड़ जाती है। अच्छी उपज मिल भी जाये तो उचित मूल्य मिलना मुश्किल होता है।


 


फलों-सब्जियों जैसी शीघ्र खराब होने वाली फसलों को भी उन्हें मजबूरी में स्थानीय खरीददारों के हाथों में औने-पौने दामों में बेचना पड़ जाता है। ऐसे ही तमाम कारणों के कारण वर्तमान में किसान परिवार के बच्चे खेती को आय अर्जन का आधार बनाने से कतराते हैं और रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ पलायन करने को कहीं बेहतर विकल्प समझते हैं। ये ग्रामीण युवा जोश में ऐसे कदम तो उठा लेते हैं पर यह सोच नहीं पाते कि शहरी जिन्दगी की परेशानियों और अथक मेहनत करने के बावजूद दो जून की रोटियाँ जुटा पाने के संघर्ष में उनकी जिन्दगी उलझकर रह जाएगी।


 


केन्द्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अन्तर्गत देश में कृषि अनुसन्धान और कृषि शिक्षा का संचालन और प्रबन्धन करने वाली शीर्ष संस्था के रूप में भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (भाकृअनुप) के अधीन कार्यरत में 103 से अधिक कृषि अनुसन्धान संस्थानों, प्रायोजना निदेशालयों और लगभग 700 कृषि विज्ञान केन्द्रों द्वारा इसी क्षेत्र में निरन्तर काम किया जा रहा है।


 


इनके द्वारा विशेषकर सीमान्त, छोटे और मझोले किसानों के लिये कृषि को लाभदायी बनाने, कम लागत की खेतीबाड़ी की तकनीकों, समेकित कृषि प्रणाली, खेती के साथ पशुपालन, शूकर पालन, मात्स्यिकी, मधुमक्खी पालन, रेशम उत्पादन, खाद्य प्रसंस्करण, जैविक खेती, वैज्ञानिक खेती के विभिन्न आयामों आदि पर आधारित तमाम कृषि प्रणालियों और प्रौद्योगिकियों एवं तकनीकों का विकास किया गया है।


 


इनका उपयोग कर सीमान्त किसान भी अपनी छोटी जोतों से साल भर में न सिर्फ कई फसलों का उत्पादन कर सकते हैं बल्कि समेकित/मिश्रित कृषि को अपनाकर अतिरिक्त आय आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। आइए, चर्चा करते हैं ऐसी ही कम लागत वाली कृषि प्रौद्योगिकियों/तकनीकों की जिन्हें परिषद के विभिन्न अनुसन्धान संस्थानों द्वारा तैयार किया गया है। इन्हें छोटे और सीमान्त किसान भी बिना ज्यादा निवेश के आसानी से अपना सकते हैं।


 


मोटे अनाजों से बढ़ाएँ आय


 


 


इस वर्ग में ज्वार, सांवां, कुटकी, कोड़ों, चेना, कंगनी, रागी जैसे गौण अनाजों का उल्लेख किया जा सकता है। इनमें प्रोटीन, रेशे, विटामिनों आदि की भरपूर मात्रा पाई जाती है। भाकृअनुप-भारतीय कदन्न अनुसन्धान संस्थान, हैदराबाद के वैज्ञानिक की मेहनत का नतीजा है कि विभिन्न प्रकार के मोटे अनाजों की खेती के लिये उन्नत प्रौद्योगिकियों का विकास सम्भव हो सका है जिनसे बेहतर गुणवत्ता (78 प्रतिशत तक) के साथ अधिक उपज (58 प्रतिशत तक) भी ली जा सकती है।


 


इन नई तकनीकों में अन्तः फसलों (ज्वार-अरहर, ज्वार-सोयाबीन आदि) की खेती से भी अधिक आय प्राप्ति के विकल्प पर जोर दिया गया है। अधिक उपज देने में सक्षम विभिन्न मोटे अनाजों का विकास भी इस क्रम में किया गया है। उदाहरण के लिये ज्वार की अधिक पैदावार देने में सक्षम किस्म ज्वार संकर-सी एस एच 17 का उल्लेख किया जा सकता है। इससे प्रचलित ज्वार की किस्मों की तुलना में 50 प्रतिशत से अधिक उपज सम्भव है।


 


जावा सिट्रोनेला से कमाई


 


 


विभिन्न औद्योगिक एवं घरेलू उपयोगों के कारण इसके तेल की माँग में हाल के वर्षों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। इसके पत्तों से लेमनग्रास की तरह का तेल निकलता है। यह तेल बाजार में 1000 से 1200 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकता है।


 


खेती के पहले वर्ष में 150-200 किलोग्राम तथा दूसरे से पाँचवें वर्ष तक 200-300 किलोग्राम तक तेल इस बहुवर्षीय घासरूपी फसल की कटाई से प्राप्त हो जाता है। पहले साल ही इसकी बुआई पर खर्च होता है। उसके बाद आगामी वर्षों में इस पर नगण्य खर्च होता है। मोटे तौर पर इससे किसान को शुद्ध लाभ 50-70 प्रतिशत तक या 80 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर तक मिल जाता है। इस बारे में भाकृअनुप-उत्तर-पूर्व विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान, जोरहट से अधिकृत जानकारी मिल सकती है।