क्यों नहीं बनती सिविल सोसायटी और एनजीओ जवाबदेंह
रामस्वरूप मंत्रीआज की राजनीति, सत्ता के प्रति आग्रह, सम्पत्ति के मोह और अपराधीकरण पर आधारित है। इसके लिए भ्रष्ट आचरण, मक्कारी, झूठ, लफ्फाजी, जाति, धर्म, साम्प्रदायिकता और नेताओं की चापलूसी जरूरी शर्तें सी बन चुकी हैं। परन्तु यह सब जानते हुए भी सामाजिक आन्दोलन सत्ता और संसाधनों के मोह से अछूते नहीं हैं। आसान तर्क यह है कि बिना सत्ता (या सरकार) की ताकत के, अथवा जरूरी संसाधनों के अभाव में स्थाई परिवर्तन कैसे लाया जा सकता है? यह एक ऐसा सुविधाजनक तर्क है जो अधिकांश सामाजिक आन्दोलनों या समाज परिवर्तनकारी समूहों के इर्दगिर्द एक 'सुविधा क्षेत्र या सुविधा कवच' निर्मित करता रहता है। इसी संदर्भ में गैर सरकारी हस्तक्षेपों की चुनौतियों तथा तेजी से बदल रहे चरित्र व प्राथमिकताओं पर भी रोशनी डालना जरूरी है। 1980 के दशक तक हमारे देश में एनजीओ शब्द ईजाद या आयातित नहीं हुआ था। गैर सरकारी संस्थाओं के प्रयास आमतौर पर गांधीवादी, सर्वोदयी या स्वयंसेवी प्रयास थे।सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक संस्थाएं बड़ी मात्रा में मानव कल्याण, नारी उद्धार, दलित उद्धार जैसे कार्यक्रम चलाती थीं जो सदियों से हमारे देश की परम्परा रही हैं। उदाहरण के तौर पर देश भर में फैली धर्मशालाएं और सरायों जैसी चीजे हमारे यहां ही देखी जाती हैं, जहां लोग मुफ्त में ही ठहरा करते थे। पानी पीने के जितने कुएं, फल वाले और छायादार पेड़, विद्यालय, मुफ्त चिकित्सा स्थल, प्याऊ, लंगर और सदाव्रत आदि जितने समाज की देन रहे हैं- उतने किसी बादशाह या हुकूमत के द्वारा भी नहीं। ऐसे कार्यो को पुण्य या धार्मिक कृत्य भी जाना जाता रहा है। जन कल्याण, सदियों से हमारे समाज का एक अभिन्न अंग रहे हैं जिसका गहरा असर गांधीवादी प्रयासों पर भी दिखा है।सत्तर के दशक में तत्कालीन सरकार की तानाशाही के खिलाफ युवाओं के आक्रोश ने एक लोकतांत्रिक और रचनात्मक आकार ग्रहण किया। प्रजातंत्र की पुनर्स्थापना के लक्ष्य को लेकर लाखों युवा आन्दोलन में कूदे। आन्दोलन के फलस्वरूप सत्ता परिवर्तन हुआ। 1977 में गिने चुने लोग तो सरकारों में चले गए किन्तु, समाज परिवर्तन की चेतना व संकल्प से लैस हजारों युवक-युवतियां अपने विश्वविद्यालयों और कैरियर में वापस नहीं लौटे। कुछ छोटे-छोटे समूह बनाकर गांव गलियारों में जा बैठे, जहां वे समता और न्याय के लिए सामाजिक जागरूकता बढ़ाने में जुट गए, दूसरे कुछ आदर्शवादी युवजन राजनीतिक व्यवस्था से मोहभंग के कारण नक्सलवादी बन पहाड़ों, जंगलों में निकल गए। अस्सी के दशक में नारी अधिकार, पर्यावरण, समुचित ग्रामीण विकास, जनोन्मुखी आर्थिक नीतियों, दलितों व असंगठित बंधुआ मजदूरों, किसानों, खेतीहर मजदूरों, मछुआरों व बाल अधिकारों आदि की बहसें भी तेज हो गईं। जिसके परिणाम स्वरूप देश में कई उल्लेखनीय जन संगठन व आन्दोलन खड़े हुए। किन्तु फिर धीरे-धीरे इन्हीं मुद्दों पर नई प्रकार की संस्थाओं ने जन्म लिया।नब्बे के दशक में इस क्षेत्र में भारी चारित्रिक बदलाव आया जिसकी शुरूआत पहले ही हो चुकी थी। वह था विदेशी धन, विचारों और तौर तरीकों का प्रभाव। पश्चिम में मानव अधिकार, विकास, पर्यावरण, स्त्रियों, बच्चों आदि के सरोकारों पर उल्लेखनीय काम हुए व नई परिभाषाएं और शब्दावलियां गढ़ी गईं। वहां पर इन कामों के लिए भारी मात्रा में चन्दा, दान, सरकारी अनुदान इकट्ठा होने लगा। भारत सहित तमाम विकासशील देशों में इसका असर तुरन्त पड़ा। एक नई एनजीओ संस्कृति का तेजी से उद्भव हुआ, आयातित शब्दावली, कार्य प्रणालियों और धन के साथ। इस दशक में ज्यादा जोर समस्याएं ढ़ूढ़ंने, उनके कारणों का विश्लेषण करने और उन्हें उजागर करने पर रहा। मीडिया का चरित्र भी इसके साथ-साथ बदला। मानवाधिकार पत्रकारिता, विकास और पर्यावरण पत्रकारिता जैसी नई धाराओं का विकास हुआ।अनंतकाल से मानव जाति एक तरफ तो अपने शारीरिक सुखों, सुविधाओं और सहूलियतों के नए-नए तरीके ईजाद करती रही है, वहीं दूसरी तरफ न्याय, समानता और शांति के लिए निजी व संगठित प्रयास भी होते रहे हैं। मजेदार बात यह है कि इन दोनों धाराओं में इतना घाल-मेल हो चुका है कि अलग-अलग करके देखना कठिन है। इस घाल-मेल के पीछे चरित्रगत कमजोरियां और निजी व सामाजिक मूल्यों का हृास आंतरिक कारण हैं तथा उपभोक्तावाद, बाजारवाद, राजनैतिक महत्वाकांक्षा, भ्रष्टाचार आदि बाहरी कारण हैं। फिर भी सामाजिक बदलाव के आन्दोलन हमारे देश में और दुनियाभर में किसी न किसी रूप में चलते रहे हैं।नब्बे के अन्त और 2000 वाले दशक के शुरूआती सालों में पारम्परिक तरीकों से समस्याओं के हल पर ज्यादा जोर रहा। जैसे कानून बनवाना, उन्हें लागू करवाना, स्कूल, अस्पताल, रोजगार, आवास जैसी कल्याणकारी योजनाओं को क्रियान्वित कराने के लिए संगठनों और आन्दोलन के माध्यम से सरकारों पर दबाव डालना आदि। किन्तु पिछले दशक के आखिरी सालों में एक नई जरूरत महसूस हुई। मौलिक व अभिनव समाधानों के खोज की जरूरत तथा परिणामों व साक्ष्यों पर आधारित समाधानों के संकलन, विश्लेषण तथा आदान-प्रदान की जरूरत। हमारे देश में ही नहीं दुनिया भर मे लोग वैकल्पिक समाधानों में जुट पड़े हैं। चाहे वह विकास से संबंधित हो, बाजार से जुड़े हो या उर्जा क्षय, पर्यावरण संरक्षण, जलवायु परिवर्तन अथवा मानवाधिकार रक्षा के मुद्दे। हर जगह वैकल्पिक समाधानों की तलाश जोर-शोर से चल रही है। एडवोकेसी (जनपैरवी) के नए-नए तरीके खोजने पर जोर दिया जा रहा है। इस सबके चलते गैर सरकारी संगठन आज सरकारों, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं और कारपोरेट जगत में नीति निर्माण व फैसलों की प्रक्रिया में अपनी जगह बना रहे हैं। एनजीओ क्षेत्र में सामाजिक उद्यमिता को बढ़ावा दिया जा रहा है।एनजीओ क्षेत्र में समाज की समस्याओं को उजागर करना अभी भी खत्म नहीं हुआ है जो कई मायनों में जरूरी है। इसमें मीडिया और विदेशी दानदात्री संस्थाओं की काफी कुछ भूमिका व मदद भी है। किन्तु यहां एक विरोधाभास है। किसी समस्या के हल के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती, खासकर तब जब वह सांस्कृतिक या व्यवस्थागत कारणों से जुड़ी हो। दूसरी तरफ नित नए मुद्दे आ जाते हैं। फिर उन्हीं के लिए अनुदान की भरमार होने लगती है। आज के अधिकांश जन संगठन और आन्दोलन इसी की उपज हैं।कुल मिलाकर जन आन्दोलन और एनजीओ-वाद का भी बड़ा सुविधाजनक घालमेल हो चुका है। इसी को शायद आजकल फैशनेबुल अंदाज में सिविल सोसाईटी कहा जाता है। बड़े से बड़े ताकतवर और भ्रष्ट राजनेता को पांच साल में कम से कम एक बार अपने वोटरों का सामना करना पड़ता है, उनके प्रति उसकी जवाबदेही होती है। यूनियन नेताओं की अपने सदस्यों के प्रति और कारपोरेट मुखियाओं को अपने उपभोक्ताओं और शेयरधारकों के लिए जवाबदेह होना पड़ता है। परन्तु ईमानदार से ईमानदार अथवा महाभ्रष्ट सिविल सोसाईटी व्यवहारिक तौर पर किस जन समूह के लिए जवाबदेह है यह कह पाना मुश्किल है। कितने जनसंगठन व सामाजिक संस्थाएं हैं, जिनमें आंतरिक लोकतंत्र चलता है? कितनों के चरित्र पारदर्शी हैं? खासकर आर्थिक मामलों में?देशी-विदेशी फण्डों, सूचना व संवाद की नई तकनीकों, मीडिया के साथ संबंधों व उसके इस्तेमाल से थोड़ी बहुत (या कभी कभार खूब सारी) भीड़ क्या दिखी, संसद और विधान सभाओं में पहुँचने के सपने और उपक्रम शुरू हो जाते हैं। परन्तु किसानों, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों, मछुआरों, महिलाओं, पर्यावरण, विस्थापन, जमीन, भ्रष्टाचार आदि मुद्दों पर जन आन्दोलन चलाने वाले कितने लोग मुख्य धारा की राजनीति में सफल हो पाए? शायद नाम मात्र को ही। हां (भले ही) दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों आदि पर एक प्रकार की साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले ही सत्ता प्रतिष्ठान का मजा लूटते रहे हैं।अभी भी कुछ मुद्दों पर महत्वपूर्ण जन अभियान चल रहे हैं। निःसंदेह इनमें कुछ बेहद ईमानदार और समर्पित कार्यकर्ताओं द्वारा चलाए जा रहे हैं। हालांकि ज्यादातर का बहुत सीमित क्षेत्रीय जनाधार और एकांगी नजरिया है। साथ ही संसाधनों पर बाहरी निर्भरता ने अधिकांश को पंगु बना रखा है। कई आन्दोलनों की जीवन रेखा ही बहुत छोटी होती है। इसके उलट, जो थोड़े बहुत सफल हो गए हैं या सफलता का ढिंढोरा पीटने में सफल रहे हैं, वे एक प्रकार से उन मुद्दों के ठेकेदार बन बैठे हैं। उसी कथित सफलता अथवा विशेषज्ञता की छवि को भुनाने में ही कई बरस मजे से गुजार देते हैं। वे व्याख्यान देने, टी.वी. चैनलों पर एक्सपर्ट के रूप में बहस करने, एक से दूसरे स्थान और देशों में हवाई यात्राएं करने, लिखा-पढ़ी और जन संपर्क बनाने में ही अपना ज्यादा वक्त बिताते हैं।
आज इस बात की शख्थ जरूरत है कि ये कथित जन आन्दोलन व उनके नेता गहरा मंथन, आत्मालोचना और ईमानदार समीक्षा करें। उनके उद्देश्यों, लक्ष्यों, लोक लुभावन नारों और सपनों में अमूमन गहरी संवेदना, मानवीय मूल्य और आध्यात्मिक गहराई के तत्व होते हैं। वे मानें या न मानें, समता, न्याय, एकता, संगठन, भागीदारी, अहिंसक आवेश, संवेदना, सहिष्णुता, प्रकृति प्रेम जैसे मूल्य दरअसल आध्यात्मिक या यूं कहें कि ईश्वरीय गुणों के प्रतिबिम्ब ही हैं, तो गलत नहीं होगा। संगठनों या आन्दोलनों के चरित्र में से इन मूल्यों का हृास ही उनकी विकृतियों, विखण्डनों, भटकावों और पराभव का सबसे बड़ा कारण बन गया है।रामस्वरूप मंत्री