स्वच्छ पानी को पाने की जंग
नदी की सफाई और जल संरक्षण के नाम पर केवल बंदरबांट
अरुण निगम
अब शुद्ध पानी के अधिकार की जरूरत है।
संविधान के अनुच्छेद 15-2 में सभी सामुदायिक संसाधनों में समान अधिकार प्राप्त है। कुँआ, तालाब, नदी सामाजिक सम्पत्ति है इसके जल का उपयोग देख-रेख और सुरक्षा सरकार का दायित्व है। लेकिन कुँआ तालाब, नदी की सफाई और जल संरक्षण के नाम पर केवल बंदरबांट हो रहा है। यह एक भावुक अपील थी कि सभी नागरिकों को एक राज्य के भीतर उपलब्ध जल संसाधनों पर समान अधिकार होना चाहिए। इस अपील की चर्चा के बाद आगे का रास्ता भले ही सरकार पर छोड़ दिया गया हो लेकिन इस चर्चा में स्वच्छ पानी राइट टू वॉटर के अधिकार पर बहस को नये सिरे से जन्म दे दिया है। सवाल यह है कि सभी नागरिकों को किसी विशेष राज्य या क्षेत्र में उपलब्ध जल संसाधनों पर समान अधिकार होना चाहिए और समान वितरण सुनिश्चित करना चाहिए। जिससे कोई भी पानी के अभाव में प्यासा न रहे। दरअसल गर्मी की तपिस पर पानी की गम्भीर समस्या के साथ लोग पानी के संकट से जूझ रहे हैं।
पानी की समस्या साल-दर-साल सुरसा के मुँह की तरह विकराल होती जा रही है। तमाम इलाकों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है। संयुक्त राज्य अमरीका की तुलना में भारत में पहले से ही प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता के आधार पर 50 लीटर पानी की उपलब्धता है। जनता को शुद्ध पानी पीने का मौलिक कानूनी अधिकार नहीं है। लोगों को शुद्ध पानी मिले इसके लिए राष्ट्रीय पानी नीति बनाई जाये। नई निर्वाचित केन्द्र सरकार इसे राज्य पर भी लागू करने की रणनीति बनाए। सरकार स्वीकार करती है कि देश के एक तिहाई से ज्यादा जिलों में भूगर्भ जल पीने लायक नहीं है।
यह समस्या साल-दर-साल सुरसा के मुँह की तरह विकराल होती जा रही है। तमाम इलाकों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है। संयुक्त राज्य अमरीका की तुलना में भारत में पहले से ही प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता के आधार पर 50 लीटर पानी की उपलब्धता है। इसके दूसरी ओर खुद को जागृत मानने वाले वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता मनुस्पर्शी अपील करते हुए कहते हैं कि राइट टू वॉटर यानी पानी के अधिकार पर अब चर्चा होने लगी है। बुन्देलखण्ड इस बहस का हिस्सा बन चुका है। जनता को शुद्ध पानी पीने का मौलिक कानूनी अधिकार नहीं है। लोगों को शुद्ध पानी मिले इसके लिए राष्ट्रीय पानी नीति बनाई जाये। नई निर्वाचित केन्द्र सरकार इसे राज्य पर भी लागू करने की रणनीति बनाए। हालांकि प्रधानमंत्री पिछले दिनों जब बांदा जनपद के कृषि विश्वविद्यालय आए तो उन्होंने पानी के लिए जल शक्ति मंत्रालय जैसी भारी भरकम घोषणाएँ कर वाहवाही लूटी थी।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 21 के अनुसार एक निर्णय में 15 लीटर पानी प्रति व्यक्ति को दिया जाना चाहिए लेकिन सरकार ऐसा कर पाने में कामयाब नहीं दिख रही। शायद यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश का बड़ा हिस्सा है। सरकार स्वीकार करती है कि देश के एक तिहाई से ज्यादा जिलों में भूगर्भ जल पीने लायक नहीं है। तकरीबन 254 जनपदों में मानक से अधिक आयरन और 224 जनपदों में खतरनाक फ्लोराइड युक्त पानी पाया गया है। जिससे स्वच्छ जल को लेकर तीन मुख्य चुनौतियों से देश को लड़ने के लिए तैयार होना होगा, पहली चुनौती जागरूकता का अभाव। दूसरी चुनौती भूजल में रसायनों की अधिक मात्रा। तीसरी, पानी की व्यापक स्तर पर दुरूपयोग। यूनाइटेड नेशन की माने तो दुनिया की आधी आबादी के पास पीने योग्य पानी नहीं है।
हमारे देश की 90 प्रतिशत जनता को पता ही नहीं है कि उसके मौलिक अधिकारों में शुद्ध जल का कोई कानूनी अधिकार भारत की संसद ने पास ही नहीं किया। दुनिया भर में पानी को लेकर हाय-तौबा मच रही है फिर भी देश में 70 वर्षों के बाद भी शुद्ध जल पीने का मौलिक अधिकार न दिला पाया। लेकिन अब इस पर चर्चा के साथ मुद्दा बनाने को समाजसेवी आगे आ रहे हैं। गिरते भूजल के कारण जल संकट भयावह स्थिति में आ गया है। एनजीटी की ओर से देश भर में नदी के 350 से अधिक भागों को प्रदूषण मुक्त बनाने की राष्ट्रीय योजना तैयार करने के लिए एक केन्द्रीय निगरानी समिति भी गठित की जा चुकी है। दरअसल नदियों के प्रदूषण से जल और पर्यावरण की सुरक्षा पर गम्भीर खतरा पैदा हो गया है।
दुनिया की 70 फीसदी आबादी प्रदूषित पानी पीने को मजबूर।
भाजपा के आरटीआई कार्यकर्ता संजय पाण्डेय साफ तर्क देते हैं कि पानी केवल जीवित रहने के लिए बहुत बड़ा आधार है। मामले को उजागर करने के लिए वह वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लाभ के लिए पानी की खपत और संरक्षण के बारे में लोगों को जागरूक कर रहे है। दरअसल स्वच्छ जल की चुनौती का मामला यूँ ही तूल नहीं पकड़ा। देश के हर नागरिक को स्वच्छ जल उपलब्ध कराने का वादा सरकार ने अपनी नीतियों के तहत आज से आठ वर्ष पूर्व ही किया था जो तमाम कोशिशों के बाद भी पूरा करती नजर नहीं आ रही। संसद में पूछा गया सवाल आज भी फड़फड़ा रहा है। जिसे बुन्देलखण्ड में देश की सबसे ज्यादा नदियाँ हैं वहाँ पानी की किल्लत मची हुई है। अधिकारी एक ओर कुँआ और तालाब जियाओं योजना पर काम कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर नदियों का सीना चीर कर खनन हो रहे हैं, जिसमें भागीदारी सरकार की भी है। सर्वोदयी कार्यकर्ता उमाशंकर पाण्डेय की मर्मस्पर्शी अपील है कि भारत सरकार मौलिक अधिकार में शुद्ध पानी देने का कानून बनाने पर राष्ट्रीय बहस की ओर मार्ग चुनने को प्रेरित करती है।
भारत सरकार ने अपनी योजनाओं में मार्च 2021 तक देश की 28,000 बस्तियों को स्वच्छ जल आपूर्ति के लिए 25,000 करोड़ रूपए देने की घोषणा कर रखी है। शुद्ध पेयजल आपूर्ति के लिए अमृत योजना से सम्बन्धित शहरों में 1,300 करोड़ रूपए खर्च करने की योजना है। केन्द्रीय मदद से चलने वाली पेयजल पुर्नगठन योजना के तहत तैयार कराए जा रहे इन योजनाओं की मंजूरी के लिए सरकार बड़े-बड़े दावे कर रही है। प्रोजेक्ट की खास बात यह है कि इसमें पेयजल और सीवर लाइन की पाइपलाइन अलग-अलग डाली जाएगी। बावजूद इसके बांदा जनपद में सीवर योजना सफेद हाथी साबित हो चुकी है। एक अनुमान के अनुसार देश के करीब 265 गाँवों तक स्वच्छ जल लोगों को नहीं मिल रहा। नदियों का पानी जहरीला हो रहा है। बुन्देलखण्ड के हमीरपुर जिले में एक गाँव का पानी इतना जहरीला है कि जानवर भी उसे नहीं पीते।
70 फीसदी लोगों को प्रदूषित पानी पीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। शायद यही कारण है कि लोग अब केन और मंदाकिनी नदी को बचाने के लिए खुद ब खुद आगे आ रहे है। पानी के दुरूपयोग और दोहन को रोकने के लिए संकल्पित होना होगा। यूनिसेफ के फुजैल कहते हैं, शुद्ध पेयजल के लिए सरकार ने 1300 करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान बनाया है। एक सर्वे के मुताबिक हर 27 सेकेण्ड में एक बच्चे की मौत प्रदूषित पानी पीने से होती है। एबीएसएसएस के प्रोजेक्ट समन्वयक प्रकाश गुप्ता कहते हैं, पीने का साफ पानी हर नागरिक को उपलब्ध होगा तभी हर नागरिक बीमारियों से बच सकता है।