जीएम फसलों से परंपरागत खेती संकट में



सावधान ! कहीं खेती के अस्तित्व को ही खत्म ना कर दे जीएम फसलें














भारतीय कृषि क्षेत्र की अपनी ही मुसीबतें हैं. कहीं सूखा पड़ा हुआ है तो कहीं कोई इलाका बाढ़ से ग्रस्त है. कहीं मिट्टी अपनी उर्वरता खो चुकी है, तो कहीं किसान कर्ज के बोझ से परेशान हैं. लेकिन इस समय जो संकट सामने खड़ा है, उस तरफ हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया है. हम जिस संकट से आपको अगाह कर रहे हैं, उसके ना केवल गंभीर परिणाम हैं बल्कि यह लोगों के स्वास्थ के साथ-साथ खेती के लिए भी खतरनाक हो चला है.


दरअसल, यह खतरा अनुवाशिक संशोधित फसलों एवं जानवरों के बढ़ते हुए तादाद से है. अब आप यह सोच रहे होंगे कि भला यह आनुवांशिक संशोधन क्या है और किस तरह यह हमारी फसलों एवं पशुओं के लिए खतरनाक हो चला है?


वास्तव में आनुवांशिक संशोधन के अतंर्गत किसी भी फसल के डीएनए में बदलाव किया जाता है. यह काम मुख्य रूप से फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के लिए किया जाता है. आज के संदर्भ में अगर देखा जाए तो इस समय दुनिया भर के राष्ट्रों अनुवांशिक फसलों का उत्पादन धड्ड्ले से हो रहा है. आलम यह है कि आज ना सिर्फ ऐसे खतरनाक प्रयोग ना सिर्फ फसलों पर हो रहे हैं बल्कि पशुओं को भी निशाना बनाया जा रहा है.



अनुवांशिकीय रूपांतरण करने के पिछे तर्क यह दिया जाता है कि इसका मुख्य लक्ष्य फसलों के गिरते हुए उत्पादन को बचाना या उसे बढ़ना है. लेकिन इस बात पर वैज्ञानिकों का मत अलग है. वैज्ञानिकों की माने तो खाद्य पदार्थो के उत्पादन में हो रही कमी का मूल कारण खराब वितरण, दुषित मौसम एवं खतरनाक दवाओं का उपयोग है और इन कारकों पर ध्यान देने की आवश्यक्ता है. लेकिन दुर्भाग्य से किसान इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं और अनुवांशिक छेड़छाड़ को अनावश्यक बढ़ावा देकर बड़ी-बड़ी कंपनियों की जेबें भर रहे हैं.

इस मामले पर खेती विरासत के संस्थापक उमेन्द्र दत्त की माने तो भारत में जीएम फसलों का कोई भविष्य नहीं है, लेकिन फिर भी यहां इस तरह की खेती को बढ़ावा मिलता है तो उसके परिणाम घातक हो सकते हैं.


जीएम फसलों के उत्पादन से पहले सामाजिक एवं बायो एंगल को देखने की भी जरूरत है. हमारे पर्यावरण में बायो डायवर्सिटी का पूरा एक चेन है, जो एक दूसरे पर निर्भर है. ऐसे में किसी फसल के डीएनए में बदलाव करने से पूरी डायवर्सिटी पर क्या असर हो सकता है, यह सोचने वाला विषय है