सूखा या बाढ़ नहीं, किसान के लिए सबसे बड़ी त्रासदी है माटी मोल कीमतें
जब बाजार में कीमतें सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी रह जाएं तो आपको क्या लगता है किसानों को क्या करना चाहिए? जब बाजार मूल्य लागत से भी कम हो जाएं तो किसानों को क्या करना चाहिए? ये वे सवाल हैं, जिनका सामना किसान पिछले चार दशकों से करते आ रहे हैं। इन सवालों का जवाब अभी तक कोई नहीं खोज पाया है, न कृषि अर्थशास्त्री न नीति निर्माता। अधकचरी योजनाओं और वादों के अलावा इस सवाल को बड़ी चतुराई से नजरअंदाज किया जाता रहा है, बिना यह अहसास किए कि किसान को उसकी उपज का सही मूल्य चुकाना किसान और उसके परिवार के लिए जिंदगी और मौत का सवाल है।
उड़द का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 5600 रुपए प्रति क्विंटल है लेकिन राजस्थान की कोटा मंडी में किसानों को एक क्विंटल उड़द की अधिकतम कीमत महज 2000 रुपए मिल रही है। एक क्विंटल उड़द उगाने की लागत लगभग 3428 रुपए आती है। एक स्थानीय अखबार ने अनुमान लगाया है कि इस तरह किसानों को हर दिन लगभग 7 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। इसी तरह पंजाब में किसानों को मक्के का दाम प्रति क्विंटल 1100 से ज्यादा नहीं मिल रहा है। इस साल मक्के के लिए जो 1700 रुपए प्रति क्विंटल का एमएसपी घोषित हुआ है यह उससे 35 प्रतिशत कम है। इस एमएसपी में ए2+एफएल लागत भी जुड़ी हुई है।
फिलहाल, सड़कों पर टमाटर फेंके जाने की खबरें आने लगी हैं, इस बीच मंडी में आने वाली हर ताजा सब्जी की कीमत बहुत कम हो गई है। जब फसल कटाई के बाद उपज माटी के मोल बिकने लगे तो किसान के पास आत्महत्या करने या फिर खेती छोड़कर शहरों में छोटामोटा रोजगार खोजने के अलावा कोई और चारा नहीं रह जाता। इसमें कोई हैरानी बात नहीं है कि अकेले जून महीने में महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके में ही 208 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। दूसरी जगहों पर भी किसानों के खेतों में मौत का नाच बेरोकटोक जारी है। खेती के मामलों के जानकार और शोधकर्ता रमनदीप सिंह मान ने कीमतों में हाल में आई गिरावट का एक चार्ट तैयार किया है। अभी तो फसल कटने की शुरूआत भर हुई है और देश भर में पहले ही कीमतें मुंह के बल गिर चुकी हैं।
देखिए किसानों को एमएसपी की तुलना में उनकी उपज की क्या कीमत मिल रही है: उड़द: कोटा (राजस्थान) में 2000 रुपए प्रति क्विंटल्र, जबकि इसका एमएसपी 5600 रुपए प्रति क्विंटल है मक्का: मंदसौर (मध्य प्रदेश) में 1300 रुपए प्रति क्विंटल और पंजाब में 1075 रुपए प्रति क्विंटल, जबकि इसका एमएसपी 1700 रुपए प्रति क्विंटल है मूंग: गंगानगर (राजस्थान) में 5000 रुपए प्रति क्विंटल, जबकि इसका एमएसपी 6975 रुपए प्रति क्विंटल है सोयाबीन: हर्दा (मध्य प्रदेश) में 2800 रुपए प्रति क्विंटल, जबकि इसका एमएसपी 3399 रुपए प्रति क्विंटल है कपास: धामनोद (मध्य प्रदेश) में 4600 रुपए प्रति क्विंटल, जबकि इसका एमएसपी 5450 रुपए प्रति क्विंटल है
लगातार तीन साल से फसल कटाई के समय पर फसलों के दाम बुरी तरह से गिरे हैं। अब आप किसानों की दुर्दशा और उनकी तकलीफ का अंदाजा लगा सकते हैं। साल दर साल किसान मेहनत करते हैं, अपने पूरे परिवार के साथ खेतों में काम करते हैं और मंडी पहुंचने पर पता चलता है कि उनकी उपज के दाम तो मिट्टी में मिल चुके हैं। अपने पूरे परिवार के साथ की गई मेहनत के बदले उसे घाटा नसीब होता है जो अंतत: उसे अपनी जीवनलीला खत्म कर देने पर विवश कर देता है। अब कल्पना कीजिए, लगातार तीन बरसों से घाटा सह रहे किसानों की हालत का। जैसे कि मैंने पहले भी कहा था, खेतों पर मौत का भयानक नाच जारी है। किसी बरस पड़े सूखे या उस साल हुई भारी बारिश को तबाही कहना गलत है। ये सब चीजें तो सामान्य बातें हैं पर शायद किसान के लिए सबसे बड़ी त्रासदी है मंडी में उपज की कीमतों में आने वाली जबर्दस्त गिरावट। कुछ साल पहले विश्व त्रासदी रिपोर्ट को दिए गए साक्षात्कार में मैंने कहा था, "किसान महज चक्रवात या बाढ़ की त्रासदी नहीं झेलता। सूखे या भयानक बारिश के लिए तो किसान काफी कुछ तैयार रहता है, लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा सदमा तो तब लगता है जब अनुकूल मौसम और भरपूर फसल होने के बाद भी बाजार में उसकी उपज को वाजिब दाम नहीं मिलते। यह ज्यादा बड़ी त्रासदी है।" कुछ बरस पहले मैंने कहा था कि खेती की सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि हर बार जब भी किसान फसल की बुआई करता है, उसे इस बात का अहसास तक नहीं होता कि दरअसल वह घाटे की फसल बो रहा है। हाल ही में शुरू की गई PM-AASHA स्कीम में भी सरकार ने साफ किया है कि केवल विपणन योग्य 25 पर्सेंट अधिशेष फसल की ही सरकारी खरीद होगी। खाद्य पदार्थों का बफर स्टॉक बनाने के लिए इतना पर्याप्त है। पर बड़ा सवाल है कि बाकी की 75 प्रतिशत उपज का क्या होगा? अगर किसान कम कीमत पर अपनी फसल बेचता है तो उसे हुए नुकसान की भरपाई कहां से होगी? क्योंकि सरकार की निगाह में खेती आर्थिक गतिविधि है ही नहीं। बाजार सुधार का पूरा ढांचा खेती के दोहन पर टिका है जिसमें खेती और उससे जुड़ी गतिविधियों को महज जनता का पेट भरने और उद्योग को सस्ता व कच्चा माल मुहैया कराने का जरिया माना जाता है। कच्चा माल जितना सस्ता होगा उसे उपलब्ध कराने वाले नाकारा बाजार की उतनी ही ज्यादा तारीफ होगी। जो बाजार किसानों का जितना अधिक शोषण करते हैं व उतने ही अधिक सक्षम माने जाते हैं। इस लिहाज से eNAM और कुछ नहीं शोषण करने वाले बाजार का उन्नत डिजाइन भर है। इसमें व्यापारियों को सस्ती दर पर माल मिल जाता है लेकिन किसानों से उनकी उपज खरीद मूल्य पर नहीं खरीदी जाती और इस तरह उनका मुनाफा मारा जाता है। सबसे बेहतर विकल्प यह है कि वर्तमान में मौजूद कृषि मूल्य एवं लागत आयोग (सीएसीपी) का पुनर्गठन किया जाए। सीएसीपी इस समय अलग-अलग फसलों के लिए एमएसपी तय करता है। इसका नाम बदलकर कृषक आय एवं कल्याण आयोग कर देना चाहिए जिसका काम कृषक परिवार की न्यूनतम आय तय करना और उसे प्राप्त करने के तरीकों का सुझाव देना हो। अगर हम किसान की न्यूनतम आय को सबसे निचले दर्जे के कर्मचारी की न्यूनतम आय यानि 18,000 रुपए प्रति माह भी मानें तो आयोग का काम किसी क्षेत्र विशेष में रहने वाले किसानों की औसत आय की गणना करने और न्यूनतम आय से उसके अंतर को इनकम ट्रांसफर के जरिए किसान तक पहुंचाने का काम करना चाहिए। तेलंगाना मॉडल भी एक किस्म का इनकम ट्रांसफर है जिसे आयोग को अपनाना चाहिए। गौरतलब है कि तेलंगाना में हर किसान को प्रति एकड़ के हिसाब से 8000 रुपए की फिक्स धनराशि मिलती है। यह भी देखें: जब तक टमाटर, आलू, प्याज को नहीं मिलेगा एमएसपी सड़कों पर लुटती रहेगी किसान की मेहनत दूसरी बात, एमएसपी तय करने के तरीके में सुधार की जरूरत है। चूंकि किसान को जो एमएसपी मिलता वह खाद्य पदार्थों के खुदरा मूल्य से सीधे जुड़ा हुआ है। मेरा सुझाव है कि एमएसपी का खाद्य पदार्थों से संबंध खत्म कर देना चाहिए। सरकार को गेहूं एमएसपी पर खरीदना चाहिए जिससे अंतत: बाजार में खुदरा मूल्य निर्धारित होगा। पर यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसानों को सी2 लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा मिले, एमएसपी पर इस मुनाफे को सीधे उनके जनधन बैंक अकाउंट में भेज देना चाहिए। उदाहरण के लिए, धान के मामले में सरकार को किसानों से इसे 1750 रुपए प्रति क्विंटल पर खरीदना चाहिए और शेष 590 रुपए प्रति क्विंटल को सीधे उनके अकाउंट में भेज देना चाहिए। इस तरह बिना खुदरा मूल्य प्रभावित हुए किसान को उनका वाजिब हक मिल जाएगा। कई दशकों पहले की गई गलती को सुधारने का यह एक मौका है।