बढ़ते प्रदूषण ने 5 लाख लोगों की जान ली

जलवायु परिवर्तन से 20 साल में 5.2 लाख लोगों ने गवाई जान


कृपाशंकर सिंह


जलवायु परिवर्तन से खतरे में पृथ्वी।


मौसम की बेरुखी से देश के कई हिस्से मुश्किल हालात का सामना कर रहे हैं। एक ओर कई राज्यों में भारी बारिश के कारण आई बाढ़ से हालात बेकाबू हो गए हैं तो वहीं दूसरी ओर कई इलाके ऐसे भी हैं जो सूखे के कारण भयानक जल संकट की चपेट में हैं। तमिलनाडु में भयानक सूखे से चेन्नई में लोग भीषण जलसंकट से जूझ रहे हैं। हालात इतने खराब हैं कि राज्य सरकार को चेन्नई में जलापूर्ति के लिए ट्रेन का सहारा लेना पड़ा है। इसके उलट उत्तरप्रदेश, बिहार और असम में 33 लाख से ज्यादा लोग बाढ़ की चपेट में हैं। मानसून के सीजन का डेढ़ महीना बीत जाने के बावजूद देश के कई हिस्सों में मानसून की रफ्तार सुस्त है। दिल्ली एनसीआर के अधिकांश इलाकों में लोग अभी भी मानसून की झमाझम बारिश का इंतजार कर रहे हैं। दिल्ली में अब तक जितनी बारिश होनी चाहिए, उसकी तुलना में केवल 12 फीसदी दर्ज की गई है। कच्छ में लोग सूखे का सामना कर रहे हैं। यहाँ 50 फीसद कम बारिश हुई है और लोग अभी भी झमाझम बारिश का इंतजार कर रहे हैं।


19वीं सदी के बाद से पृथ्वी की सतह का तापमान तीन से छह डिग्री तक बढ़ गया है। हर 10 साल में तापमान में कुछ न कुछ वृद्धि हो ही जाती है। ये तापमान में वृद्धि के आंकड़े मामूली लग सकते हैं, लेकिन इनके पीछे प्रलय छिपी हुई है। आमतौर पर जलवायु में बदलाव आने में काफी समय लगता है और उस बदलाव के साथ धरती पर मौजूद सभी जीव (चाहे वो इंसान ही क्यों न हों), जल्द ही सामंजस्य भी बैठा लेते हैं। लेकिन पिछले 150-200 सालों की अगर बात की जाए तो ये जलवायु परिवर्तन इतनी तेजी से हुआ है कि इंसानों से लेकर पूरा वनस्पति जगत इसके साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है। लेंसेट (मेडिकल जर्नल) की रिपोर्ट कहती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में हुई क्षति का 99 फीसदी तो भारत जैसे निम्न आय वाले देशों में हुआ है। 


वहीं पूर्वोत्तर राज्यों, खासकर असम और बिहार में बाढ़ से हाहाकार मचा हुआ है। राज्य आपदा प्रबन्धन अथॉरिटी के अनुसार इस बार असम के 33 में से 30 जिले बाढ़ से गम्भीर रूप से प्रभावित हुए हैं। बाढ़ का तात्कालिक कारण भारी वर्षा है लेकिन चैंकाने वाली बात यह है कि नॉर्थ-ईस्ट में मानसूनी बरसात में लगातार कमी आती जा रही है। भारतीय मौसम विभाग के आंकड़ों से इसका खुलासा हुआ है। औसत वर्षा में कमी आने की गति 1981 में तेज हुई। असम में औसत वार्षिक वर्षा 1,524.6 मिलीमीटर होती है। 1871 से 1916 के बीच बरसात में औसत 0.74 मिलीमीटर कमी आई, पर 1981-2016 में यह 5.95 मिमी हो गई। पुणे स्थित इंडियन इस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रॉलजी ने पिछले साल आईएमडी के आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था। इसी अवधि में पूर्वी उत्तर प्रदेश, मेघालय, उप-हिमालयी क्षेत्र और पश्चिम बंगाल में भी औसत वर्षा में गिरावट आई, जबकि पूर्वी राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ और दीव में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई, पूर्वोत्तर के राज्यों नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, और त्रिपुरा में भी औसत वर्षा में 10 प्रतिशथ की कमी आई, लेकिन भारी वर्षा वाले दिनों में बढ़ोत्तरी हुई है, जिसकी वजह से ब्रह्मपुत्र घाटी के कई हिस्सों में भंयकर बाढ़ आई है, कई और अध्ययनों में भी साफ हुआ है कि भारत में औसत मानसूनी वर्षा कम हुई है, लेकिन बाढ़ लाने वाली भारी वर्षा में 5 फीसदी की वृद्धि हुई है। इससे एक भ्रम पैदा हो रहा है। हम बाढ़ को देखकर सोचते हैं कि ठीक-ठाक बरसात हो रही है, जबकि यह गलत है।


महाराष्ट्र के पुणे और मुम्बई में बीते दिनों हुई भारी बारिश ने जहाँ लोगों का जीना दुश्वार किया, वहीं मराठमाड़ा में 34 फीसद और विदर्भ में 20 फीसद कम बारिश हुई। गुजरात में अभी भी बारिश में आठ फीसद की कमी है, जबकि छत्तीसगढ़ में सामान्य से चार फीसद कम बारिश रिकॉर्ड की गई है। देश में मध्य प्रदेश ही एक ऐसा राज्य है जहाँ सामान्य से ऊपर बारिश दर्ज की गई है। उत्तर प्रदेश के दक्षिणी जिलों में बारिश का इंतजार है। बुंदेलखण्ड के कई इलाके पानी की किल्लत का सामना कर रहे हैं। मानसून के कमजोर होने का बुरा असर खेती पर भी पड़ा है।



दरअसल, मेघों की चाल से धरती पर जिन्दगी की नियति तय होती है। इसी नाते इधर कुछ वर्षों में मौसम के उलटफेर के चलते धरती की आबोहवा में भी कुछ बदलाव दिखने शुरू हुए, तो कहा जाने लगा कि मेघों ने अपनी चाल बदल ली है। असल में मेघों की चाल बदली या नहीं बदली, यह पक्के तौर पर कहना कठिन है पर उससे ज्यादा भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि हमारी चाल बदल गई है। कई स्तरों पर पर्यावरणीय प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के चलते प्राकृतिक सन्तुलन लगातार बिगड़ा है। समुद्री चक्रवातों और हवाओं में एक तरफ बढ़ोत्तरी के हालात बने हैं तो दूसरी ओर भूमिगत जलस्तर और नदियों व तालाबों जैसे जलस्त्रोत सिकुड़ चुके हैं। इन तमाम वजहों से मानसून अस्थिर हो चुका है। सिर्फ मानसून ही नहीं, बल्कि कई बार मौसम का सही आंकलन न हो पाने की स्थिति बन चुकी है। साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक शोध के अनुसार आने वाले दिनों में दक्षिण एशिया के कृषि क्षेत्र भीषण गर्मी की चपेट में ज्यादा आएँगे। इसका सबसे ज्यादा असर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के कृषि क्षेत्रों पर पड़ेगा। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार हर साल हीटवेव (लू) की घटनाओं में वृद्धि देखी जा रही है।
 
आंकड़ों के अनुसार 19वीं सदी के बाद से पृथ्वी की सतह का तापमान तीन से छह डिग्री तक बढ़ गया है। हर 10 साल में तापमान में कुछ न कुछ वृद्धि हो ही जाती है। ये तापमान में वृद्धि के आंकड़े मामूली लग सकते हैं, लेकिन इनके पीछे प्रलय छिपी हुई है। आमतौर पर जलवायु में बदलाव आने में काफी समय लगता है और उस बदलाव के साथ धरती पर मौजूद सभी जीव (चाहे वो इंसान ही क्यों न हों), जल्द ही सामंजस्य भी बैठा लेते हैं। लेकिन पिछले 150-200 सालों की अगर बात की जाए तो ये जलवायु परिवर्तन इतनी तेजी से हुआ है कि इंसानों से लेकर पूरा वनस्पति जगत इसके साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है। लेंसेट (मेडिकल जर्नल) की रिपोर्ट कहती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में हुई क्षति का 99 फीसदी तो भारत जैसे निम्न आय वाले देशों में हुआ है। इस क्षति का आकलन गर्मी बढ़ने के कारण पैदा होने वाली परिस्थितियों, तबाही की घटनाओं, इसके चलते स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों, बीमारियों आदि को ध्यान में रखते हुए किया गया है। रिपोर्ट में पिछले दो दशकों से भी कम समय में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव तेजी से सामने आए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2000 संे 2017 के बीच 62 अरब कार्य घंटे के बराबर की उत्पादकता नष्ट हुई है। साल 2000 में भारत में यह अनुमान लगाया गया था कि 43 अरब कार्य घंटों की क्षति हो सकती है, लेकिन पिछले दो दशकों में यह काफी बढ़ गई है, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सबसे ज्यादा मौसम पर पड़ता है। गर्म मौसम होने से वर्षा का चक्र प्रभावित होता है और इससे बाढ़ या सूखे का खतरा पैदा हो जाता है। इसके अलावा ध्रुवीय ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के स्तर में भी वृद्धि हो जाती है। पिछले कुछ सालों में आए तूफानों और बवंडरों ने अप्रत्यक्ष रूप से इसके संकेत भी दिए हैं। 2018 में जारी संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक 2016-2017 और 2018 सबसे गर्म वर्षों की सूची में शीर्ष पर हैं।
 
जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले खराब मौसम के कारण भारत में हर साल 3,660 लोगों की मौतें हो जाती है। हाल ही में जारी की गई एक रिपोर्ट में साल 1998 से लेकर 2017 तक आंकड़ा दिया गया था। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि खराब मौसम से होने वाली घटनाओं में बीते 20 सालों में दुनियाभर में 5.2 लाख लोगों की जानें गई हैं। यह रिपोर्ट जर्मन वॉच द्वारा जारी की गई है। आज पहाड़ों और घाटियों में निर्मित और निर्माणाधीन बड़े बाँध, नदियों के जलस्तर में बदलाव, अंधाधुंध खनन, जंगलों की आग, सूखा, बाढ़, बेहिसाब औद्योगिकीकरण, शहरी क्षेत्रों में लगातार चल रहा निर्माण, कम होती खेती की जमीनें, सड़कों पर बढ़ती वाहनों की भीड़ और बढ़ती जनसंख्या मौसम में बदलाव का सबसे बड़ा कारण है। भारत के पास भूमि का ढाई फीसदी और दुनिया भर के पानी का चार फीसदी हिस्सा है, जबकि दुनिया की 17 फीसदी आबादी यहाँ रहती है, इसलिए चुनौतियाँ आने वाले दिनों में बढ़ने वाली हैं। इसको विडंबना ही कहेंगे कि एक तरफ देश के कई हिस्से बाड़ की चपेट में हैं, दूसरी तरफ कुछ हिस्से सूखे का संकट झेल रहे हैं। यह मौसम में भारी असन्तुलन का संकेत है और आगे यह और बढ़ने वाला है। इसे एक चेतावनी की तरह लेते हुए हमें अपने रहन-सहन में भारी बदलाव करना होगा, साथ ही बाढ़ और सूखे जैसी दो विपरीत आपदाओं से एक साथ निपटने की तैयारी भी रखनी होगी।