खेती के सुनियोजित विकास और कृषि आय बढ़ाने के लिए जरूरी है सुनियोजित रोड मैप

  • कृषि सम्बन्धी सुधारों के लिए रोडमैप



डॉ. जे.पी.मिश्रा


 


भारत में कृषि का भविष्य कृषि अनुसन्धान एवं विकास में वर्तमान में कितना निवेश किया जा रहा है, उस पर निर्भर करता है। कृषि अनुसन्धान एवं विकास क्षेत्र में नूतन प्रयोग करने की आवश्यकता है जिससे सूक्ष्म कृषि, उच्च पोषक और प्रसंस्कृत किए जाने वाली किस्में, जलवायु प्रतिरोधक प्रौद्योगिकियाँ, कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित कृषि और बाजार परामर्शों के लिए साइबर कृषि भौतिक प्रणालियाँ विकसित हो सकें।


1990 के सुधारों के बाद सभी क्षेत्र समय के साथ आगे बढ़े लेकिन कृषि क्षेत्र सुधारों में पिछड़ गया। सरकारों द्वारा शुरू किए गए कई सुधार विभिन्न कारणों से वापस ले लिए  गए। नतीजतन, कृषि क्षेत्र तो उन्नत हुआ पर किसानों को नुकसान उठाना पड़ा। 2014 के बाद इसे फिर से मजबूती प्रदान की गई है जिसकी गति और अधिक बढ़नी चाहिए। सरकारी एजेंसियों का मुख्य कार्य सुधारों की व्यापक स्वीकृति के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार करना है। इसके लिए तीन चीजों- जानकारी, बुद्धिमता और पारस्परिक विचार-विमर्श की आवश्यकता है।


प्रधानमंत्री द्वारा एक उच्च स्तरीय समिति के गठन के साथ, भारतीय कृषि में परिवर्तन का दौर शुरू हो गया है और 2014 में शुरू किए गए सुधारों का एजेंडा मुखर हो गया है। इस समिति में 7 राज्यों- महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण, ग्रामीण विकास और पंचायती राजतंत्र तथा सदस्य सचिव के रूप में नीति आयोग के सदस्य शामिल हैं, कृषि और उससे सम्बद्ध क्षेत्रों की भारत में किसी भी विकास योजना प्रक्रिया में अहम भूमिका है क्योंकि ये रोजगार के अवसर मुहैया करवाते हैं, खाद्यान्न और खाद्य सुरक्षा प्रदान करते हैं और चीनी, कपड़ा, हर्बल, खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों के लिए कच्चा माल सुनिश्चित करते हैं, जिनमें लोगों को बड़ी संख्या में स्तरीय रोजगार मिलते हैं। कृषि के लिए बजटीय आवंटन लगातार बढ़ रहा है। हालांकि, मौसमी उतार-चढ़ाव के कारण कृषि जीडीपी में वृद्धि कुछ कम रही। कई बार मानव-मशीन-पशु के हितों में टकराव के चलते संसाधन, उत्पाद और लोग परेशानी का सामना करते हैं। उत्पादकों को उत्पादन और कीमत के झटके मिल रहे हैं। और वे निवेश वस्तुओं की बढ़ती कीमतों और स्थापित बाजार प्रणालियों में पारिश्रमिक के अनुरूप कीमतों के न मिलने से एक कशमकश में जी रहे हैं। किसानों के इस कष्ट को कम करने के लिए सरकार ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना शुरू की, जिसके तहत प्रत्येक कृषक परिवार को प्रति वर्ष 6000 रुपए मिलेंगे। सुधारों के अन्तर्गत  कम मूल्य वसूली, व्यापार में अत्यधिक मध्यस्थता और बुनियादी ढांचे के विकास में बेहद कम निजी निवेश ( 2 प्रतिशत) ऐसे प्राथमिकता वाले क्षेत्र  हैं जिन्हें सभी हितधारकों के ठोस प्रयासों की आवश्यकता है। बुनियादी ढांचे में भी वृहद अन्तर एक गम्भीर समस्या है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। कोल्ड चेन विकास के राष्ट्रीय केन्द्र ने पैक हाउसों में 99 प्रतिशत, रेफर वैन में 85 प्रतिशत, कोल्ड स्टोरेज में 10 प्रतिशत और राईपिंग कक्षों में 91 प्रतिशत के अन्तर का अनुमान लगाया है। इसी तरह 463 कि.मी. पर एक बाजार का होना, 78 कि.मी पर एक बाजार के मानक से बहुत कम है।
 
नीतियों में परिवर्तन


पिछले 5 वर्षों के दौरान नीतियों और प्राथमिकताओं में बदलाव देखा गया है। 2035 तक भारत की आबादी 1.6 बिलियन
होगी। भूमि, जल और अन्य सीमित प्राकृतिक संसाधनों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता घट जाएगी और जलवायु परिवर्तन के कारण जल उपलब्धि पर भी असर पड़ेगा। खाद्यान्न की माँग 2033 तक अनुमानतः 340-356 मिलियन टन से अधिक होगी (नीति आयोग, 2018) और ऐसी ही वृद्धि अन्य वस्तुओं की माँग में भी होगी। ऐसा ही चलते रहने से कृषि में 3-4 प्रतिशत की वृद्धि होगी जिससे कुछ होने वाला नहीं है। कृषि योजना में परिवर्तन लाना होगा जिससे वह सतत रूप से लाभदायक बने और ऐसा उत्पादन कृषि व्यवसाय, मूल्य श्रृंखला, निवेश और अभिशासन को कृषि सुधारों की मुख्यधारा में लाकर सम्भव हो सकेगा। कृषि के लिए बनाई जाने वाली नीतियों और निवेश प्राथमिकताओं को आय सुरक्षा और समावेशिता के अनुरूप होना चाहिए। अनुदान की कमी से जूझते वर्षा-आधारित क्षेत्रों में जल से सम्बन्धित सकारात्मक परियोजनाओं के लिए निवेश को बढ़ाया जाना चाहिए। भागीदारी भूजल प्रबन्धन के साथ-साथ सूखे से बचाव की आवश्यकता है जिसके लिए व्यापक सहायक सिंचाई के ढांचे में निवेश के अलावा भूजल और सतही जल निकायों का संयोजन किया जाना चाहिए। अनुमानों के अनुसार वर्षासिंचित क्षेत्रों की क्षमता को 12-15000 रुपए/ हेक्टेयर के मौजूदा निवेश के मुकाबले 50,000 रुपए/हेक्टेयर तक बढ़ाकर बेहतर बनाया जा सकता है। खाद्यान्न और पोषण, आय सुरक्षा, गरीबी घटाने, व्यापार में वृद्धि और कृषि एवं कृषि से सम्बन्धित गतिविधियों में संलग्न लोगों की आय को बढ़ाने के लिए एक बहु-क्षेत्रीय और कनेक्टिविटी-आधारित विकास की आवश्यकता है।
 
अनुसंधान और प्रौद्योगिकी


भारत में कृषि वस्तुओं की उत्पादकता किसी भी वैश्विक मानक से बहुत कम है। इसके कई कारण हैं, जिनमें से प्रमुख हैं, बेहतर किस्म के बीज और उर्वरक आदि तथा उन्नत टेक्नोलॉजी का कम उपयोग। लगभग आधे कृषि क्षेत्रों में पानी की कमी के कारण कई फसलों की खेती नहीं हो पाती, जिससे भूमि संसाधनों का प्रभावी उपयोग नहीं हो पाता है। कई देशों की तुलना में हम लगभग सभी वस्तुओं में एक ही श्रेणी के आर्थिक उत्पादन में बहुत अधिक जल की मात्रा की खपत करते हैं। दोहरी फसल से किसान की आमदनी काफी हद तक बढ़ जाती है (मिश्रा, 2003)। सार्वजनिक क्षेत्र की प्रयोगशालाओं में विकसित तकनीक का अधिकांश भाग कमजोर कृषि विस्तार प्रयासों या अपर्याप्त वितरण तंत्र के कारण किसानों तक नहीं पहुँच पाता है। देश में सार्वजनिक क्षेत्र के अनुसंधान के सामने अनुदान की कमी है और वैज्ञानिक और निजी क्षेत्र के सामने नियमों और बौद्धिक सम्पदा अधिकारों की रुकावटें हैं। कुछ फसलें जैसे तिलहन और दलहन में, जहाँ परम्परागत प्रजनन के साथ वांछित आनुवांशिक वृद्धि सम्भव नहीं हो पाई है, वहाँ जीएम प्रौद्योगिकियों का प्रयोग कर के नवीन किस्मों/ संकरों का विकास आवश्यक है। साथ ही, रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल को कम करने के प्रयासों पर नए सिरे से ध्यान केन्द्रित करने के लिए कुछ नए प्रकार के पौधों और पौधों की जड़ और सूक्ष्मजीव सहजीविता की आवश्यकता होती है जो पहले से उपलब्ध फास्फोरस और अन्य पोषक तत्वों को मिट्टी से जुटा सकें। जीएम तकनीक विभिन्न जलवायु परिवर्तनों से उत्पन्न होने वाले संकटों को रोकने में भी उपयोगी हो सकती है। इसलिए, सरकार जीईएसी (जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल समिति) द्वारा उचित अनुमोदन के बाद ही जीएम प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान और विकास की अनुमति देने पर विचार कर सकती है। बीज और बीज अनुसंधान के प्रयासों और सूक्ष्मजीवों और जीवाणुओं से सम्बन्धित सह-व्यवस्थाओं, जैव सरोपण, जैवप्रेरकों आदि से सम्बन्धित नए नियमनों की आवश्यकता है क्योंकि ये न तो आम रासायनिक उत्पाद हैं और न ही कीटनाशक हैं, लेकिन इनके व्यावसायीकरण के लिए लाइसेंस की आवश्यकता है। व्यावसायीकरण के लिए ऐसे नियमनों/ सामग्रियों की सुगमता निश्चित करने के लिए सम्बन्धित अधिनियमों में मानकों और विस्तृत विवरणों को अन्तनिर्हित किया जा सकता है।
 
कृषि अनुसंधान पर वर्तमान निवेश कृषि-जीवीए यानी सकल मूल्य संवर्धन की वर्तमान कीमतों का 0.58 प्रतिशत है। भारत में कृषि का भविष्य कृषि अनुसंधान एवं विकास में वर्तमान में कितना निवेश किया जा रहा है, उस पर निर्भर करता है। कृषि अनुसंधान एवं विकास को नूतन प्रयोग करने की आवश्यकता है जिससे सूक्ष्म कृषि, उच्च पोषक और प्रसंस्करण किए जाने वाली किस्में, जलवायु प्रतिरोधक प्रौद्योगिकियाँ, कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित कृषि और बाजार परामर्शों के लिए साइबर कृषि भौतिक प्रणालियाँ विकसित हो सकें। जल प्रशासन और जल सम्भावनाओं को खोजने के लिए विकासात्मक अनुसंधान की अति आवश्यकता है। अग्रणी क्षेत्र जैसे जीन सम्पादन, जीनोमिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, नैनो टेक्नोलॉजी जिनसे चौथी औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात हो रहा है, पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। ये पूँजी-प्रधान अनुसंधान हैं और इसलिए सरकार को कृषि अनुसंधान एवं विकास में कृषि जीडीपी के कम-से-कम एक प्रतिशत निवेश पर विचार करना चाहिए।
 
जल प्रशासन


चूँकि कृषि में लगभग 84 प्रतिशत ताजे पानी का उपयोग किया जाता है इसलिए भारत में जल की माँग और आपूर्ति प्रबंधन में सुधारों की आवश्यकता है। जल की कमी वाले देश भारत में वार्षिक जल उपलब्धता 1544 मी3., प्रति व्यक्ति है और यह भीषण अभाव (<1000 मी3. प्रति व्यक्ति) की ओर बढ़ रहा है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के 6607 इकाइयों (ब्लॉक/मंडल/तालुकों) के अध्ययन से यह ज्ञात हुआ है कि इनमें से 16.2 प्रतिशत 'अति दोहन' की श्रेणी में आती हैं और 14 प्रतिशत या तो 'संकटमय' स्थिति में या 'आंशिक रूप से संटमय' स्थिति में हैं। उनमें से अधिकांश उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि बड़े पैमाने पर सार्वजनिक सिंचाई प्रणाली की वितरण विफलताओं से बचने के लिए किसान के पास भूजल एक बचाव-तंत्र के रूप में उपलब्ध नहीं है। क्षमताओं का सृजन और उनके उपयोग के बीच का बड़ा अन्तर चिन्ता का विषय रहा है क्योंकि 112.53 मिलियन हेक्टेयर सृजित सिंचाई क्षमता में से केवल 89.26 मिलियन हेक्टेयर का उपयोग किया जाता है (नीति आयोग, 2016)। सभी जल निकायों और जलाशयों की व्यापक जानकारी के आधार पर कार्यक्रमों और एजेंसियों के बीच एक सशक्त तालमेल ही इसका निवारण करक सकता है। सौभाग्यवश सरकार ने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के माध्यम से कृषि, जल संसाध, भूमि संसाधन और जल से सम्बद्ध अन्य विभागों के कार्यक्रमों के बीच तालमेल पर व्यापक नियंत्रण रखा है। प्रधानमंत्री के जल-संरक्षण और इसके प्रभावी उपयोग के लिए आह्वान के बाद इसे और अधिक महत्व मिलना चाहिए। जलशक्ति अभियान को इन मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए। माइक्रो-इरिगेशन यानी सूक्ष्म सिंचाई क्षेत्र में एक बड़े सुधार की आवश्यकता है, जो इसे मात्र किसान सब्सिडी संचालित कार्यक्रम से क्षेत्र-आधारित सार्वजनिक-निजी व्यापार मॉडल में परिवर्तित करे और जिसमें सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों का निर्माण, मरम्मत और रखरखाव शामिल हो। राज्यों को सूक्ष्म सिंचाई के लिए नाबार्ड में स्थापित 5000 करोड़ के कोष के माध्यम से ऐसे मॉडलों को प्रोत्साहित करना चाहिए। हरियाणा और कर्नाटक राज्यों में ऐसी प्रायोगिक परियोजनाओं का अध्ययन किया जा सकता है और अन्य स्थानों पर उन्हें अमल में लाया जा सकता है। जल प्रशासन को एक मजबूत प्रशुल्क व्यवस्था के आधार पर सूक्ष्म सिंचाई और जल आय-व्यय प्रणाली पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। कृषि को मुफ्त बिजली देने से सम्बन्धित नीति के स्थान पर एक मीटरिंग प्रणाली लाई जानी चाहिए जैसाकि गुजरात में किया गया है।
 
उर्वरक क्षेत्र में सुधार


शून्य बजट प्राकृतिक खेती की मजबूत हिमायत हाल के दिनों में देखी गई है जिस पर वैज्ञानिक समुदाय में प्रश्न उठे थे। उर्वरक पर सब्सिडी 2018-19 में 70079.85 करोड़ तक पहुँच गई। उर्वरक क्षेत्र में सुधार अनिवार्य हैं। माइक्रोबियल कंसेर्टिया, बायोस्टिमुलेंट, बायो कम्पोस्ट, प्लांट ग्रोथ प्रमोटरों आदि जैसे पोषण के वैकल्पिक स्रोतों और उनके विनिर्देशों को उचित रूप से उर्वरक (नियंत्रण) आदेश, 1985 और कीटनाशक अधिनियम, 1968 में शामिल किया जाना चाहिए ताकि उनके व्यापार और व्यावसायीकरण को बढ़ावा दिया जा सके जिससे इन वैकल्पिक स्रोतों द्वारा रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल घटाया जा सके। हालांकि उर्वरक सब्सिडी को समाप्त करने के सम्बन्ध में अभी तक कोई निर्णय नहीं किया जा सका है, फिर भी इस व्यवस्था का युक्तिकरण आवश्यक है। सभी प्रमुख पोषक तत्वों के लिए एनबीएस (न्यूट्रीएंट बेस्ड सब्सिडी) शुरू करने की व्यवस्था जल्दी-से-जल्दी विकसित की जानी चाहिए। उर्वरकों में डीबीटी को एक बड़ी सफलता मिली है। मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना एक अनूठी योजना है जिसकी हर खेतिहर परिवार में 100 प्रतिशत पहुँच है। 216 मिलियन से अधिक मृदा स्वास्थ्य कार्ड चक्र I और II (चित्र 1) में वितरित किए गए हैं। मृदा स्वास्थ्य कार्ड में अगले स्तर के सुधार में इसमें एकीकृत मृदा स्वास्थ्य देखरेख प्रणाली शामिल होनी चाहिए जिसके अन्तर्गत किसानों के भूमि आकार के अनुरूप उर्वरक की आवश्यकता के साथ फसलों के आंकड़ों और फसल पद्धतियों को शामिल किया जाना चाहिए। उर्वरक वितरण (प्रकार में) या उर्वरक सब्सिडी (नकदी में) को इस एकीकृत मृदा स्वास्थ्य देखरेख आंकड़ा प्रणाली के साथ जोड़ा जा सकता है।
 
जोखिम प्रबन्धन


जनवरी 2016 में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई) को शुरू किया गया जिसमें अनेक पूर्ववर्ती बीमा योजनाओं का विलय हुआ। खरीफ मौसम 2017 तक इससे 2.81 करोड़ किसानों को लाभ पहुँचा, जिसमें प्रति किसान को औसतन 11881.70 रुपए मिले (तालिका-1) हालांकि, इस योजना की असली चुनौती समायोचित और सटीक अनुमान तथा भुगतान है। बीमाकृत क्षेत्र के रिकॉर्ड की दुरुस्ती और नुकसान की व्यापकता और मात्रा तथा उसके अनुरूप शीघ्र भुगतान एक चुनौती है। अब तक राज्य फसल कटाई प्रयोगों (सीसीई) के आंकड़ों को मानते हैं। इसलिए, फसल कटाई प्रयोगों की पर्याप्त संख्या का आयोजन करना महत्त्वपूर्ण है और साथ ही यह प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की सफलता के लिए सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण है। राज्य को अपनी नीतियों में सुधार लाने होंगे और बीमाकृत क्षेत्र तथा नुकसान के फील्ड-स्तर के आकलन के लिए रिमोट सेंसिंग, ड्रोन, स्मार्ट फोन इत्यादि जैसी तकनीकों को एक प्रभावी और स्वीकृत माध्यम के रूप में अपनाना होगा।
 
आवश्यकता अनुरूप ऋण
 
सारंगी समिति (2016) की सस्ते कर्ज पर सिफारिशें सरकार द्वारा लागू की गई हैं। तीन लाख रुपए तक के अल्पकालिक फसली ऋण पर सस्ती ब्याज दर और किसान क्रेडिट कार्ड योजना के आधार को व्यापक बनाया गया है जिसमें सावधि ऋण और उपभोग की जरूरतों के अलावा आकस्मिक मृत्यु पर जोखिम कवर भी शामिल हैं। ऋण लक्ष्य और उपलब्धता बढ़ रही है (चित्र 2) लेकिन किसानों और क्षेत्रों के बीच ऋण का समान वितरण चिन्ताजनक है क्योंकि कई राज्यों में छोटे और सीमांत किसानों के कारण धन ऋण देने वाले लोग फल-फूल रहे हैं। संस्थागत ऋण किराएदारों या पट्टेदार किसानों को भी उपलब्ध नहीं है। सामान्य तौर पर पट्टेदार को संस्थागत ऋण राहत प्रदान नहीं की जाती है, हालांकि पट्टे के तहत संख्या और आनुपातिक क्षेत्र समय के साथ बढ़ रहा है। राज्यों को नीति आयोग द्वारा तैयार किए गए कृषि भूमि पट्टे पर मॉडल अधिनियम 2016 के आधार पर अपने भूमि पट्टे सम्बन्धी कानूनों में सुधार करना चाहिए जिससे किराएदारों को संस्थागत कृषि ऋण के तहत मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी जिसका प्रावधान सरकार ने 2018-19 के बजट में किया है। से क्षेत्रों में जहाँ ग्रामीण बैंक कम संख्या में हैं, बैंकिंग सुविधादाता के रूप में बैंकिंग की वैकल्पिक प्रणाली को मजबूत किया जाना चाहिए। अल्पकालिक फसल ऋण का लाभ उठाने के लिए बैंकिंग प्रक्रियाओं में सुधार की आवश्यकता है जिसमें कम-से-कम कागजी कार्यवाई होने से बहुत मदद मिलेगी।
 
निर्देशित विविधिकरण
 
खेतिहर परिवारों का 86 प्रतिशत भाग छोटे और सीमान्त किसानों का है जिनके पास कृषि क्षेत्र का 45 प्रतिशत भाग है, लेकिन वे अपने उत्पादन का केवल 12 से 33 प्रतिशत ही बेचते हैं। असल में केवल खेती करने से इन किसानों की आमदनी कभी नहीं बढ़ सकती। वर्ष 2013-14 के उत्पादन आंकड़ों (सीएसओ 2013-14) के मूल्य से पता चलता है कि प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन में अनाज द्वारा 0.38 लाख रुपए, दालों द्वारा 0.29 लाख रुपए और तिलहनों द्वारा 0.49, लाख रुपए के मुकाबले फल और सब्जी की फसलों का 3.30 लाख रुपए का उत्पादन होता है। सामान्य कृषि फसलों की खेती से फल और सब्जियों की खेती की ओर रुख करके कृषि उत्पादन का मूल्य काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है। आन्ध्र प्रदेश, गुजरात में पिछले 15 वर्षों के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी में तेजी से गिरावट को श्रेय विविध खेती को जा सकता है। पिछले कुछ समय में, पशुधन क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण सकारात्मक बदलाव देखा गया है (तालिका-2)। निर्देशित विविधीकरण केवल तभी हो सकता है जब किसानों को अपने उत्पादन को, जिसे वे चाहें, बेचने का पूरा अधिकार दिया जाए। अनुबंध कृषि की सुचारू कार्यप्रणाली किसान को सुनिश्चित मूल्य और साथ ही आवश्यक तकनीकि सहायता प्रदान करने की दिशा में कुछ आगे ले जाएगी। इनपुट डीलरों, एफपीओ, एग्रो-प्रोसेसरों, निर्यातकों, वित्तिय सेवा प्रदाताओं, बीमा एजेंसियों आदि को किसानों के साथ उद्यमियों के रूप में काम करने के लिए जुड़ना चाहिए। अनुबंध कृषि, प्रशुल्क और कर व्यवस्था में सुधार, कृषि में व्यावसायीकरण लाने के लिए अति महत्त्वपूर्ण है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के विकास को सुगम बनाने वाली नीतियाँ उच्च मूल्य वाली वस्तुओं की बाजार में माँग बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित होंगी।

































तालिका-1 2016-18 के दौरान प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना



बीमित किसानों की संख्या



9.20 करोड़



बीमित क्षेत्र



9.03 करोड़ हेक्टेयर



बीमित राशि



333355 करोड़



भुगतान किया गया दावा



33387.7 करोड़



लाभान्वित किसानों की संख्या



2.81 करोड़



प्रति किसान औसत भुगतान



1188.17 करोड़



फसल कटाई उपरान्त प्रबन्धन
 
फसल कटाई के बाद होने वाली वार्षिक क्षति अनुमानतः 92651 करोड़ रुपए है (आइसीएआर 2015) स्टॉक होल्डिंग और भंडारण से सम्बन्धित आवश्यक वस्तु अधिनियम में सुधार से इस क्षति को काफी हद तक घटाया जा सकता है। सरकार ने इसे स्वीकारा है और प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त मुख्यमंत्रियों की उच्चाधिकार प्राप्त समिति के लिए विचारणीय विषयों में से एक के रूप में शामिल किया गया है। कृषि, खाद्य प्रसंस्करण  और वाणिज्य के बीच बेहतर तालमेल भी आवश्यक है। कृषि निर्यात नीति एक नई शुरुआत है, जिसे टेक्नोलॉजी और अहम सुधारों के साथ मजबूत किया जाना चाहिए जिससे प्रसंस्कृत की जाने वाली फसल की किस्मों और उत्पादों को विकसित करने में अधिक निवेश आकर्षित किया जा सके। (ई-नाम) और ग्राम (ग्रामीण कृषि बाजार) की पहलों के भी दूरगामी परिणाम होंगे। सरकार को दो प्रतिस्पर्धी बाजार प्रणालियों को विकसित करना चाहिए- एक को एपीएमसी के माध्यम से विकसित करना चाहिए, और दूसरे को एकीकृत मूल्य शृंखला मॉडल के माध्यम से। छोटे उत्पादकों को मूल्य शृंखला में शामिल करने के लिए एफपीओ/ संयुक्त देयता समूहों को बढ़ावा दिया जा सकता है।
 
मूल्य निर्धारण की चुनौती
 
न्यूनतम समर्थन मूल्य का अमलीकरण कभी भी उत्पाद उत्पादनकर्ता और भौगोलिक क्षेत्रों के लिए समावेशी नहीं रहा है। इसने कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पानी की अति खपत वाली फसलों के उत्पादन के तरीकों के पक्ष में बदलावों को प्रेरित किया जिससे भूजल पर प्रतिकूल असर पड़ा और परिणामस्वरूप खेती के तरीकों और किसानों की य में क्षेत्रीय पूर्वाग्रह पैदा हुए। आज सभी राज्यों के किसान चावल और गेहूँ जैसे सभी प्रमुख कृषि जिंसों के लिए मूल्य गारंटी की माँग कर रहे हैं। सरकार ने बजट 2018-19 में, उत्पादन लागत का 1.5 गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य शुरू करने की घोषणा की थी। हालंकि सी 2 या ए 2 + एफएल लागत का 1.5 गुना बहस का विषय है, सुधारों को भौतिक खरीद के वैकल्पिक तंत्र की ओर उन्मुख होना चाहिए। नीति आयोग और कृषि मंत्रालय ने राज्यों के साथ परामर्श से वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में मूल्य न्यूनता भुगतान प्रणाली और निजी स्टॉकिस्ट खरीद प्रणाली का सुझाव दिया। इन्हें जल्द से जल्द चालू किया जा सकता था। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम की प्राथमिकताओं के मद्देनजर तिलहन, कपास जैसी वस्तुओं को पहले लिया जा सकता है। राज्यों को अपने मॉडल कृषि और पशुधन विपणन (एपीएलएम) अधिनियम, 2017 के आधार पर अपने कृषि उत्पाद बाजार समिति कानूनों को भी लागू करना चाहिए ताकि गैर-मंडी के लेनदेन को सुगम बनाया जा सके, खराब होने वाले उत्पादों पर बाजार शुल्क में छूट मिल सके और इलेक्ट्रॉनिक विपणन आदि में आसानी हो। अनुबन्ध कृषि जिसके तहत खरीदार किसान को आधुनिक टेक्नोलॉजी, बेहतरीन उत्पादन समाग्री, अन्य सहायता और एक सुनिश्चित मूल्य प्रदान कर सकें, एक सम्भावित समाधान है। मई, 2018 में सरकार ने किसानों को उनके उत्पादों की कीमत निर्धारित करने और प्रायोजक के साथ मोल-भाव तय करने का अधिकार देने के लिए अनुबन्ध कृषि पर मॉडल अधिनियम की शुरुआत की। राज्यों को मॉडल अधिनियम के आधार पर उपयुक्त अनुबंध कृषि अधिनियम लागू करना चाहिए।
 
भारतीय किसानों को प्रतिस्पर्धी बनाना
 
भारतीय किसानों को गुणवत्तापूर्ण उत्पादन और कीमत के लिए विश्व-स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए उद्यमी निजी क्षेत्र को बड़े पैमाने पर कृषि के लिए और कृषि में निवेश के लिए मुख्यधारा में लाना चाहिए। उदारीकरण के बाद से, निजी क्षेत्र ने कुछ क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण निवेशों में मदद की जिसके चलते उन क्षेत्रों ने गुणवत्ता वाले रोजगार पैदा किए हैं और किसानों को अतिरिक्त आय प्रदान की है। मुर्गीपालन क्षेत्र एक ऐसा उदाहरण है जो एक सुव्यवस्थित उद्योग के रूप में विकसित हुआ। व्यावसायिक सब्जी उत्पादन धीरे-धीरे प्रगति की राह पर अग्रसर हैं, हालिया समय में कुछ राज्यों में पॉलीहाउस और उच्च तकनीक बागवानी तथा मत्स्य पालन का विस्तार, सतत आपूर्ति शृंखलाओं में जो प्राथमिक उत्पादकों को व्यवहार्य बाजारों से जोड़ती है, में छोटे और मध्यम निवेशों का परिणाम हैं। आईसीटी क्रान्ति ने किसानों और उत्पादकों को बेहतर पद्धतियों को सीखने और अपनाने और बाजार की जानकारी हासिल करने में सक्षम बनाया है। निजी क्षेत्र को यह संकेत दिया जाना चाहिए कि कुछ काम उनके निवेश के बिना नहीं हो सकते हैं जबकि सरकार की अपनी नीतियों और शासन के साथ आगे बढ़ते रहना चाहिए और सार्वजनिक धन द्वारा वंचित क्षेत्रों और लोगों तक पहुँचने के प्रयास करते रहने चाहिए। निजी क्षेत्र को भारी जोखिम और उच्च सम्भावनाओं वाली परियोजनाओं में निवेश में भागीदारी के लिए प्रोत्सहित किया जा सकता है। कृषि में अधिक निवेश लाने के लिए जीएसटी में उपयुक्त संशोधनों को लाया जा सकता है। नीतिगत रूप से एनएबीएल द्वारा मान्यता-प्राप्त आधुनिकतम खाद्य परीक्षण प्रयोगशालाओं को सभी प्रमुख बन्दरगाहों पर स्थापित किया जा सकता है जो गुणवत्ता मानकों को परीक्षण करेंगे और विदेशी बाजार में भारतीय ब्रांडों को स्थापित करेंगे। निर्यात प्रतिबंध, आयात उदारीकरण, आदि के रूप में व्यापार नीति में लगातार बदलाव घरेलू कीमतों में गिरावट के माध्यम से कृषि क्षेत्र को बहुत नुकसान पहुँचाता है। इन नीतियों में जमीनी हालात में बदलाव की प्रतिक्रिया के रूप में तुरन्त बदलाव नहीं किया गया। एक निर्दिष्ट अवधि के लिए सुसंगत नीति व्यवस्था भारत को कृषि वस्तुओं के एक अच्छे खरीदार और विक्रेता के रूप में स्थापित करेगी जिनसे घरेलू उत्पादकों को लम्बे समय तक मदद मिलेगी।
 
प्रगति की राह प्रशस्त
 
सक्षम सुधारों और अन्य सकारात्मक प्रयासों से छोटे और सीमान्त किसानों का कृषक उत्पादक संगठनों (एफपीओ) के रूप में समूहीकरम ने उन लोगों का जीवन बदल दिया है जिनके पास कम जमीन है। बजट 2019-20 ने अधिक एफपीओ स्थापित करने के लिए प्रेरित किया है। इससे पहले, 2014-15 में, 2000 एफपीओ स्थापित करने के लिए नाबार्ड में 200 करोड़ के एक कोष की स्थापना की गई थी। नाबार्ड ने इसके तहत 2174 एफपीओ की स्थापना की। ये सभी एफपीओ आरम्भिक अवस्था में हैं। इसके अलावा सदस्यता बढ़ाने, पूँजी जुटाने, क्षमता निर्माण और निविष्टियों की आपूर्ति के प्रारम्भिक व्यवसाय आदि को उपयुक्त सुधार के साथ प्रोत्साहन मिलना चाहिए। एफपीओ की आय में छूट की अनुमति देने वाले आयकर कानूनों का आधुनिकीकरण, एफपीओ द्वारा खरीदारों को सीधे विपणन की अनुमति देना, निविष्टियों के व्यापार के लिए एकल राज्यव्यापी लाइसेंस जैसे कुछ सुधारों की तुरन्त आवश्यकता है। एफपीओ की वर्तमान कानूनी संरचना में बाहरी पूँजी निवेश या व्यावसायिक कर्ज का प्रावधान नहीं है। इसका समाधान एफपीओ को वित्तीय संस्थानों से 25 लाख के सहायक युक्त ऋण के प्रावधान के माध्यम से हो सकता है। एफपीओ की ब्याज दर को फसल ऋण के लिए व्यक्तिगत किसानों की ब्याज दर के अनुरूप तर्कसंगत बनाया जा सकता है। कम्पनी अधिनियम के तहत पंजीकृत एफपीओ को सहकारी बैंकों से ऋण प्राप्तकरने योग्य बनाया जा सकता है, आदि। कृषि वस्तु विशेष छूट सहकारी समितियों को बिक्री कर के लिए प्रदान की जाती है। एफपीओ को एफपीसी के समान पंजीकृत का दर्जा देकर उन्हें सहकारी समितियों की तरह सभी बिक्री कर छूट प्रदान करना और अन्य राज्य विशेष कर छूटें मिलने से काफी मदद मिलेगी। एफपीओ के एनएससी और राज्यबीज निगमों, किसान सहकारी समितियों (इफको और कृमकों) की तरह ब्रीडर बीज भी आवंटित किए जा सकते हैं जिनसे वे गुणवत्ता वाले बीज तैयार कर सकें।



















































तालिका-2 कृषि उपक्षेत्रों से उत्पादन का मूल्य (रु करोड़ में)



उपक्षेत्र



1999-2000



2010-11



2013-14(2011-12 शृंखला)



फसल



32523851



39668677



90310924



बागवानी



11554905



17945771



34053970



पशुधन



15122628



23901369



53087251



मत्स्य उद्योग



2776670



4202372



9020252



कृषि वानिकी



6787984



8337170



14682563



कुल



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201154960



निष्कर्ष


1990 के सुधारों के बाद सभी क्षेत्र समय के साथ आगे बढ़े लेकिन कृषि क्षेत्र सुधारों में पिछड़ गया। सरकारों द्वारा शुरू किए गए कई सुधार विभिन्न कारणों से वापस ले लिए  गए। नतीजतन, कृषि क्षेत्र तो उन्नत हुआ पर किसानों को नुकसान उठाना पड़ा। 2014 के बाद इसे फिर से मजबूती प्रदान की गई है जिसकी गति और अधिक बढ़नी चाहिए। सरकारी एजेंसियों का मुख्य कार्य सुधारों की व्यापक स्वीकृति के लिए एक अनुकूल वातावरण तैयार करना है। इसके लिए तीन चीजों- जानकारी, बुद्धिमता और पारस्परिक विचार-विमर्श की आवश्यकता है। प्रखर प्रणालियों के माध्यम से एकत्रकी गई सही जानकारी को हितधारकों के सामने रखा जाना चाहिए जिससे किसी किस्से-कहानियों पर आधारित कोई निर्णय की बजाय बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लिया जा सके। कृषि को भिन्न रूप से देखने के लिए अबतक जिस नजरिए से हम उसे देख रहे थे, उसमें बदलाव की आवश्यकता है। बदलाव कठिन है लेकिन अनिवार्य है।
 
(लेखक नीति आयोग में पूर्व सलाहकार (कृषि) रह चुके हैं। वर्तमान में कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग (डीएआरई), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, कृषि भवन में सहायक महानिदेशक (योजना कार्यान्वयन और मॉनीटरिंग) हैं