दूसरी उपयोगी चीजों के भी दाम कई गुना बड़े फिर केवल प्याज पर ही हाय तोबा क्यों

प्याज की राजनीति में किसान कहीं नहीं
अपने देश में प्याज या टमाटर के दाम उछलते ही कोहराम मच जाता है, क्योंकि प्याज की बलिबेदी पर सरकारें भी चढ़ जाती हैं। इसलिए राजनीतिक रूप से इस अति संवेदनशील मसले पर सत्ताधारी तुरंत सक्रिय हो उठते हैं ताकि विपक्ष के हाथ यह मारक शस्त्र न लग जाय। लेकिन प्याज या टमाटर उगाने वाला किसान जब फसल बरबाद होने पर या कम दाम मिलने पर आत्महत्या करता है तो न तो उपभोक्ता को दर्द होता है और न ही सरकार को किसी भी तरह की संवेदनशीलता का अहसास होता है। जबकि प्याज और किसान का अस्तित्व एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।  
सदी की शुरुआत यानी कि वर्ष 2000 में प्याज की दरें सामान्य स्थिति में फुटकर बाजार में 10 से 15 रुपए किलो के आसपास होती थी और 19 साल बाद मई जून में कीमतें उछलने से पहले फुटकर में उसी प्याज की कीमत 20 रुपए के आसपास रही। जबकि अकृषि उत्पादों या अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें कई गुना अधिक बढ़ गईं। नब्बे के दशक में हमने 5 रुपए लीटर भी पेट्रोल खरीदा जो कि आज 75.35 रुपए प्रति लीटर हो गया। नब्बे के दशक में जो वस्तु 500 रुपए की रही होगी आज उसकी कीमत 5 हजार तक पहुंच गई है।
सन् 1992 में सोना प्रति 10 ग्राम 4,334 रुपए था जो कि उछल कर 2018 में 31,438 रुपए प्रति 10 ग्राम हो गया। जबकि आलू प्याज या अन्य कृषि उपजों में नब्बे के दशक की तुलना में आज भी मामूली ही वृद्धि हुई। इसी प्रकार 2004-05 के मुकाबले 2018-19 तक चांदी की कीमतों में औसतन 12.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वर्ष 2010 में ऐसा भी वक्त आया जबकि चांदी ने सीधे 89.8 प्रतिशत की उछाल मारी। सवाल केवल प्याज का नहीं है। किसान द्वारा हाड़-मांस तोड़ने के बाद मिट्टी से पैदा किया गया खाद्यान्न, जिसके बिना हम जीवित ही नहीं रह सकते, की कीमत भी मिट्टी के भाव होने की अपेक्षा की जाती है, जबकि कारखानों या फैक्ट्रियों में उत्पादित वस्तु की आसमान छूती महंगाई पर हम उफ तक नहीं करते।
नेशनल हॉर्टिकल्चर रिसर्च एंड डेवलपमेंट फाउंडेशन (एनएचआरडीएफ) के अनुसार, प्याज उत्पादन की औसत लागत 9-10 रुपए है और यही लागत किसान को मिल भी रही है। इसका मतलब है कि किसान प्याज के खेतों में जो पसीना बहाता है उससे उसके लिए केवल गरीबी और अभाव ही उपजता है, जबकि उपभोक्ता एक किलो प्याज के लिए 80 से 90 रुपए तक का भुगतान करना पड़ रहा है। फाउंडेशन के अनुसार थोक मूल्य लगभग 35-40 रुपए किलो हो सकता है, दिल्ली में एक औसत उपभोक्ता को 50 रुपये से 80 रुपए के बीच अतिरिक्त देना पड़ता है।
चूंकि उपभोक्ता किसान से बड़ा वोट बैंक है और उसकी राजनीतिक आवाज में भी ज्यादा दम है इसलिये कीमतें बढ़ने पर उपभोक्ता की तो सुनी जाती है मगर संकटग्रस्त किसान द्वारा अपने कष्टों से मुक्ति के लिये सबसे सरल आत्महत्या का रास्ता अपनाने पर सरकारों के कानों में जूं तक नहीं रेंगती है। केन्द्र सरकार का साल के शुरू में प्याज निर्यात पर 10 प्रतिशत सबसिडी समाप्त करना तथा 1 लाख टन निर्यात करना इसका उदाहरण ही है।