कोरोना संकट प्रकृति के लिए बना वरदान

कुदरत मुस्कुरा रही है
मानवीय दखल के कारण तेजी से दूषित हो रही प्रकृति ने चेतावनी दी है कि उसके साथ ज्यादा खिलवाड़ हुआ तो उसका नतीजा ठीक नहीं होगा। दुनिया यायातात प्रबंधन, जाम, औद्योगिक प्रदूषण, जल की गुणवत्ता आदि दिक्कतों से जूझ रही है और इसके मशीनी निदान पर हर साल अरबों डॉलर खर्च होते हैं।
जब पूरी दुनिया में कल-कारखाने, वाहन बंद हो गए, तो अचानक कार्बन उत्सर्जन की मात्रा पांच फीसद घट गई।
यमुनोत्री से इलाहबाद तक के अपने सफर में यमुना नदी का प्रवाह दिल्ली में महज दो फीसद है, लेकिन यहां का जहर इसके कुल प्रदूषण में छिहत्तर प्रतिशत इजाफा करता है। इसे साफ करने के लिए 1994 से अभी तक दो हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। मगर स्थिति में लेशमात्र बदलाव नहीं आया है। पर जब कोरोना विषाणु के खौफ से राजधानी थमी, तो बारहवें दिन ही यहां की यमुना करीब साठ प्रतिशत तक साफ हो गई।
पूर्ण बंदी के दौरान कल-कारखाने क्या बंद हुए, दो सप्ताह में ही पूरे देश की नदियां जल-संपन्न हो गईं। हमारी नदियों में पानी की मात्रा पिछले दस सालों में सबसे अधिक हो गई है। बंदी के बाद दो अप्रैल तक के आंकड़े बानगी हैं कि गंगा नदी में 15.8 बीसीएम पानी उपलब्ध है, जो कि नदी की कुल क्षमता का 52.6 फीसद है। पिछले साल इसी समय गंगा नदी में मात्र 8.6 बीसीएम पानी था। इसी तरह नर्मदा में क्षमता का 46.5 प्रतिशत यानी 10.4 बीसीएम पानी उपलब्ध है। तापी नदी में छियासठ प्रतिशत जल है। इसी तरह माही, गोदावरी, साबरमती, कृष्णा, कावेरी, हर नदी की सेहत सुधर गई है।
हर त्रासदी अपने साथ कोई सबक लेकर आती है। इसमें कोई शक नहीं कि कोरोना विषाणु से फैली वैश्विक महामारी पूरी दुनिया के लिए खतरा बनी हुई है। अभी न तो इसका कोई माकूल इलाज खोजा जा सका है और न ही इस विषाणु के मानव शरीर में प्रविष्ट होने का मूल कारण। इंसान अपने-अपने घरों में बंद है। ‘विकास’ नामक आधुनिक अवधारणा और असुरक्षा के नाम पर हथियारों की होड़ नेपथ्य में है। कभी युद्ध में अपने विरोधियों का खून बहाने के लिए इस्तेमाल होने वाले हथियारों को बनाने वाले कारखाने इंसान का जीवन बचाने के उपकरण बना रहे हैं। इंसान अपने भविष्य के प्रति चिंतित है। वहीं प्रकृति जो कि अभी तक अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थी, अब सुकून की सांस ले रही है।
देश के पचासी से अधिक शहरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक बीते एक हफ्ते से लगातार सौ से नीचे चल रहा है। यानी इन शहरों में हवा अच्छी श्रेणी की है। बंदी के दौरान प्रदूषण के कारक धूल कण पीएम 2.5 और पीएम 10 की मात्रा में पैंतीस से चालीस फीसद गिरावट आई है। कॉर्बन मोनोआॅक्साइड, नाइट्रोजन, सल्फर ऑक्साइड और ओजोन के स्तर में भी कमी दर्ज की गई। यह स्तर बारिश में भी नहीं रहता है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डी. साहा का कहना कि 2014 में जबसे वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) बनाया जा रहा है, ऐसा पहली बार है जब प्रदूषण न्यूनतम स्तर पर है।
पंजाब के लुधियाना से हिमचाल प्रदेश की हिमच्छादित-उत्तुंग पर्वतमाला की दूरी भले दो सौ किलोमीटर हो, लेकिन आज दमकते नीले आसमान की छतरी तले इन्हें आराम से देखा जा सकता है। जो प्रवासी पंछी अपने घर जाने को तैयार थे, वे अब कस्बों-गांवों की पोखरों पर कुछ और दिन रुक गए हैं। हिंडन जैसी नदी, जहां पिछले दस सालों में आक्सीजन की मात्रा शून्य थी, अब कुछ मुस्कुरा रही है। जिन नदियों में जल-जीव देखे नहीं जा रहे थे, उनके तटों पर मछली-कछुए खेल रहे हैं। सबसे सुकुन में समुद्र है। अब उसकी छाती को चीर कर पूरे जल-गर्भ को तहस-नहर करने वाले जहाज थमे हुए हैं। अधिक मछलियों के लालच में मशीनी ट्राले चल नहीं रहे, तो मछलियों का आकार भी बढ़ रहा है और संख्या भी। जहाजों का तेल न गिरने से अन्य जल-जीवों को सुकून मिल रहा है।
बंदी से भले एकबारगी लगता हो कि देश की अर्थव्यवस्था का पहिया थम गया है, पर बारीकी से देखें तो इससे मानवीय सभ्यता को नई सीख भी मिली है। यातायात के साधन और कारखाने बंद होने से वायु प्रदूषण और सड़क दुर्घटना में हर दिन औसतन पांच सौ लोगों की मृत्यु का आंकड़ा थम गया है। इनके इलाज में होने वाले हर दिन के करोड़ों रुपए के खर्च पर विराम लगा और वाहन न चलने से विदेश से कच्चा तेल खरीदने पर विदेशी मुद्रा के खर्च को भी राहत।
सभी जानते हैं कि बीते दो दशकों में विश्व की सबसे बड़ी चिंता धरती का बढ़ता तापमान यानी ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन है। कार्बन की बढ़ती मात्रा दुनिया में भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं को न्योता देता है। पेड़, प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानी पांच फीसद कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते हैं। वह इन दिनों भरपूर मात्रा में हो रहा है। प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढ़ने का प्रमुख कारण है बिजली की बढ़ती खपत। हमारे द्वारा प्रयोग में लाई गई बिजली ज्यादातर जीवाश्म र्इंधन (कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल) से बनती है। र्इंधनों के जलने से कार्बन डाइआॅक्साइड निकलता है। हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, उसके उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा र्इंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइआॅक्साइड उत्सर्जित होगा। फिर धरती पर बढ़ती आबादी और उसके द्वारा पेट भरने के लिए उपभोग किया गया अन्न भी कार्बन बढ़ोतरी का बड़ा कारण है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य या फिर ऐसे पदार्थ खाते हैं, जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर न हुआ हो।
जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टीएच चान स्कूल आॅफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ोतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। मगर नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं।
जब पूरी दुनिया में कल-कारखाने, वाहन बंद हो गए, तो अचानक कार्बन उत्सर्जन की मात्रा पांच फीसद घट गई। इसके कारण देश और दुनिया की हवा भी स्वच्छ हो गई है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से पहली बार कार्बन उत्सर्जन का स्तर इतना गिरा है। मानवीय दखल के कारण तेजी से दूषित हो रही प्रकृति ने चेतावनी दी है कि उसके साथ ज्यादा खिलवाड़ हुआ तो उसका नतीजा ठीक नहीं होगा। यह किसी से छिपा नहीं है कि दुनिया यायातात प्रबंधन, जाम, औद्योगिक प्रदूषण, जल की गुणवत्ता आदि दिक्कतों से जूझ रही है और इसके मशीनी निदान पर हर साल अरबों डॉलर खर्च होते हैं। कोरोना ने बता दिया कि मशीनों के अतार्किक उपयोग पर रोक लगेगी, तभी प्रकृति नैसर्गिक बनी रहेगी।
क्या दफ्तर का बड़ा काम घर से हो सकता है? क्या स्कूल में बच्चों का हर रोज जाना जरूरी नहीं? क्या समाज के बेवजह विचरने की आदत पर नियंत्रण हो सकता है? ऐसे कई सवाल और प्रकृति-शुद्धिकरण के विकल्प ये दिन सुझा रहे हैं। यह सही है कि धरती पर कोई भी तूफान न तो स्थायी होता है और न अंतिम, लेकिन इस बार की त्रासदी ने जता दिया कि धरती की प्राथामिकता हथियार नहीं, वेंटिलेटर हैं, सेना से जरूरी डॉक्टर हैं। आम इंसान को भी घरों में बंद रहने के दौरान समझ आ गया कि हमारे पास जितना है, उतने की जरूरत नहीं, जरूरत है तो मानवीय संबंधों के प्रति संवेदना की।