कर्रा गांव अब 'सीताफल ग्राम' के नाम से जाना जायेगा
यह कर्रा गांव का शरीफा है


सतीश जायसवाल
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर से 10-12 किलोमीटर दूर, अरपा और खारून नदियों के संगम की दोमुहानी पर बसा छोटा सा गांव कर्रा. यहां कभी कर्रा वृक्षों की भरमार थी लेकिन अब यह गांव 'सीताफल ग्राम' के नाम से जाना जायेगा.यह 500 घरों की एक छोटी सी बस्ती है लेकिन इसके लोगों ने बहुत बड़ा संकल्प लिया है. यह संकल्प है बस्ती को सीताफल ग्राम के रूप में विकसित करने का. पिछले दिनों बिलासपुर के कृषि महाविद्यालय के डीन डॉ. एसआर पटेल ने सीताफल का पौधा रोपकर अभियान की शुरुआत की. अब गांव के प्रत्येक घर में जहां आंगन है, सीताफल का कम से कम एक पौधा अवश्य है. फिलहाल 500 घरों की इस बस्ती में 700 से अधिक सीताफल रोपे जा चुके हैं. इस मॉनसून में यह तादाद 1,000 से अधिक पहुंचाने का लक्ष्य है. जिले का सामाजिक वानिकी विभाग लोगों को पौधे मुहैया करा रहा है.
कृषि महाविद्यालय के डीन डॉ. आर एस पटेल ने बताया कि सीताफल एक जंगली प्रजाति का वृक्ष है लेकिन इसका फल पौष्टिक तत्त्वों से भरपूर होता है. मवेशी इसके फल और पत्तियों को नहीं खाते इसलिए इसे खूब बाढ़ मिलती है. किसी विशेष देखभाल या रखरखाव की आवश्यकता भी इसे नहीं पड़ती. इसकी उत्पादन लागत शून्य होती है. यह वृक्ष एक वर्ष में तैयार होता है और दूसरे वर्ष से फल देने लगता है.
छत्तीसगढ़ का यह मैदानी क्षेत्र जिन छोटी-बड़ी नदियों से सिंचित है वे सभी जाकर महानदी में मिलती हैं. इसलिए भौगोलिक रूप से इसे महानदी घाटी का क्षेत्र माना जा सकता है. यहां का वातावरण सीताफल के लिए अनुकूल है. केवल दो दशक पहले यहां सीताफल की सघन पैदावार होती थी. लेकिन बीते समय में जमीन की जबरदस्त खरीद बिक्री और इसके गैर फसली उपयोग ने बाग बगीचों को खत्म कर दिया. इतना ही नहीं नदियों और इनसे सिंचित भूमि से अपनी आजीविका कमाने वाली जातियां भी अपने पुश्तैनी रोजगार धंधे छोड़कर यहां वहां विस्थापित हो गयीं. कर्रा केवट बहुल गांव है. यह समुदाय परंपरागत रूप से अपनी आजीविका के लिए नदियों पर आश्रित रहा है. इसलिए इनकी बसाहट भी नदियों के आसपास ही होती है.
प्रथम पंचवर्षीय योजना में महानदी पर बने विशाल हीराकुंड बांध की की वजह से इसकी सहायक नदियों पर आश्रित समुदाय भी अपने पैतृक रोजगार धंधे छोड़कर यहां वहां चले गये. कर्रा का निषाद समुदाय भी उन्हीं विस्थापितों में से एक है. अब ये लोग खेती पर आश्रित हैं. अपने गांव और उसके लोगों को सीताफल के संकल्प से जोडऩे में स्थानीय निवासी बद्री प्रसाद केवट की अहम भूमिका रही है. वह इस गांव के उपसरपंच रह चुके हैं और यहां एक विद्यालय चलाते हैं.
कर्रा का यह सीताफल पूरी तरह स्थानीय और स्वत:स्फूर्त है. सामाजिक वानिकी विभाग से मिले पौधों के अलावा इसमें किसी तरह का कोई सरकारी सहयोग या कोई हस्तक्षेप अब तक नहीं है, न ही इसकी कोई गुंजाइश है. गांव के लोगों ने भी इसे लेकर कोई आग्रह नहीं किया है. इस जज्बे को देखकर सामाजिक विकास के क्षेत्र में सक्रिय संस्थायें भी आकृष्टï हुई हैं. शिखर युवा मंच के प्रमुख भूपेश वैष्णव मानते हैं कि वृक्षारोपण इसका पहला चरण है. फसल आने पर फलों को ठीक समय पर तोड़कर उनकी पैकिंग दूसरा अहम काम है. यह बहुत कौशल की मांग करता है. सीताफल जल्दी खराब होने वाला फल है. उसे टिकाऊ और हराभरा बनाये रखना बहुत सलीके का काम है. इसके लिए जरूरी कौशल हासिल होने पर ही इसे बड़े बाजारों तक पहुंचाया जा सकेगा और अच्छा दाम मिल सकेगा.पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश के पश्चिमी छोर पर साजनपुर और मांडू अंचल सीताफल की विपुल पैदावार वाले क्षेत्र हैं. उनके पास यह कौशल है इसिलए वहां बहुत बड़ी फल मंडी विकसित हो सकी. वहां का सीताफल दिल्ली, कोलकाता, अहमदाबाद और मुंबई तक जाता है. भूपेश वैष्णव ने इसी मौसम में अपने यहां से कुछ लोगों का दल मांडू भेजने का सुझाव रखा है. वहीं चेतना की प्रमुख इंदू साहू इस अभियान को बस्तर तक ले जाना चाहती हैं. उनकी संस्था वहां काफी सक्रिय है